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आग का अक्षर / शैलप्रिया

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<poem>अकसर हम धूप में
चढ़ा लेते हैं रंगीन चश्मे
और धरती रेत हो जाती है
पिघलते सूरज का उमगना
नहीं देख पाते
सच और झूठ के बीच झूलते
धूपछांही परदे
पुरानी इमारत के झाड़-फानूस की तरह
बदरंग लगते हैं
और इधर हमारी जंग शुरू हो जाती है
जब कोई औरत
संवेदना के टूटे-तार जोड़ती
अपनी पेबन्द-सी
जिन्दगी की किताब
पलट देती है
तब मैं दुख के पन्नों पर अंकित
अक्षरों में शामिल
एक अक्षर बन जाती हूं
आग का अक्षर!</poem>
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