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स्त्री / जया जादवानी

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<poem>एक

उसने कहा तुम मत जाओ
तुम्हारे बिना अधूरा हूं मैं
सारी की सारी गठरी धर मेरे सर पर
वह चल रहा आगे-आगे
मैं गठरी समेत उसके पीछे!

दो

जैसे हाशिये पर लिख देते हैं
बहुत फालतू शब्द और
उन्हें कभी नहीं पढ़ते
ऐसे ही वह लिखी गई और
पढ़ी नहीं गई कभी
जबकि उसी से शुरू हुई थी
पूरी एक किताब!

तीन

वह पलटती है रोटी तवे पर
बदल जाती है पूरी की पूरी दुनिया
खड़ी रहती है वहीं की वहीं
स्त्री
तमाम रोटियां सिंक जाने के बाद भी!

चार

वे हर बार छोड़ आती हैं
अपना चेहरा
उनके बिस्तर पर
सारा दिन जिसे बिताती हैं
ढूंढनने में
रात खो आती हैं!

पांच

पढ़ते हैं खुद
खुद नतीजे निकालते हैं
मेरी दीवारों पर क्या कुछ
लिख गए हैं लोग!
</poem>
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