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पिलचू बूढ़ी से / निर्मला पुतुल

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<poem>पिलचू बूढ़ी, सच-सच बतलाना
क्या सचमुच तुम्हारी अंगुलियों पर नाचता था
तुम्हारा सखा पिलचू हाड़ाम?

सुना है, निहारता रहता था
हरदम तुम्हारा मुख
एक चुम्बन के लिए
हार गूंथता
और अंग-अंग फूलों से रचाकर
तुम्हारी वेणियां सजाता था?

मलकर तुम्हारे गालों पर पलाश फूलों की लाली
घंटों नाचता था
तुम्हें रिझाने के लिए?

दादी कहती थी
तब स्वामिनी थी तुम पूरी धरती की
और वह तुम्हारा मुंह हेरने वाला मुग्ध
दास!

क्या दादी सच कहती थी पिलचू बूढ़ी?

अगर हां तो यकीन नहीं होता
कि ये मगजहीन लोग
तुम्हारे वंशज हैं
जो एक छोड़ दूसरी
दूसरी छोड़
तीसरी तक को उठा लाते हैं
और बिठा देते हैं घर
जरूरत बस मन भर जाने की होती है
सचमुच यकीन नहीं होता पिलचू बूढ़ी
कि ये मगजहीन लोग
तुम्हारे वंशज हैं?
यकीन नहीं होता!

(नोट: पिलचू बूढ़ी संताल आदिवासी समाज की मान्यता के अनुसार
सृष्टि की पहली स्त्री पिलचू बूढ़ा: संताल आदिवासी समाज की मान्यता के
अनुसार सृष्टि का पहला पुरुष।)</poem>
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