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<poem>शहर-ए-ग़ज़ल में धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा
जिस दिन सूखे दिल के आँसू सब पतझड़ हो जाएगा

टूटेंगी जब नींद से पलकें सो जाउँगा चुपके से
जिस जंगल में रात पड़ेगी मेरा घर हो जाएगा

ख़्वाबों के पंछी कब तक शोर करेंगे पलकों पर
शाम ढलेगी और सन्नाटा शाखों पर हो जाएगा

रात क़लम ले के आएगी इतनी सियाही छिड़केगी
दिन का सारा मंज़र-नामा बे-मंज़र हो जाएगा

दिल की कश्ती एक तरफ है लाखों दुआएँ एक तरफ़
सूखा तो क्या गम का दरिया चुल्लू भर हो जायेगा

'क़ैसर' रो लो ग़ज़लें कह लो बाक़ी है कुछ दर्द अभी
अगली रूतों में यूँ लगता है सब पत्थर हो जाएगा
</poem>
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