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सीखने के दरवाजे / रेखा चमोली

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<poem>रोज किसी न किसी सवाल का हाथ पकड
घर लौटता है मेरा बेटा
कभी ये दुनिया
सुंदर पंखुडियांे की तरह खुलती उसके सामने
तो कभी हो जाती
अंधेरे सी धोकेबाज
कभी दूर से फंेके
कूडे की थैली सी फट से खुलती
वो डर और विस्मय से घिर जाता


कभी उत्तेजित करती उसे
लहरों पर चलने
अंतरिक्ष में गोता लगाने को

किताबों की व्यवस्थित दुनिया से फिसलकर
गलियों मुहल्लों में घूमती, रंग बदलती बातें
अपनी सहुलियत के हिसाब से उसे
बडा या छोटा कर देते लोग

मेरे लाख खीजने डॉटने पर भी
नहीं भूलता वो सवाल करना
बडे लोग सवाल नहीं करते
कई बार वे सवाल करने लायक भी नहीं बचते

बच्चों के मन में उठते रहें सवाल
खुले रहें सीखने -सिखाने के दरवाजे।
</poem>
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