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काला चश्मा / रेखा चमोली

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<poem>इतनी सर्दी में
शरीर उस गेंद की तरह हो गया है
जिसे गुम हो जाने पर
छोड आते हैं बच्चे
मैदान में ही
सुबह धूप पडने पर
बूॅद-बूॅद टपकती है
रात भर जमी ठंड
गेंद सा बना मेरा शरीर
जोर की अंगडाई लेना चाहता है
मुझे नहीं चाहिये
थोडी सी धूप
थोडी सी जमीन
मुझे मेरे हिस्से का पूरा चाहिए
मुझे नहीं पता कैसे मिलेगा
पर मैं जानती हॅू
मेरे घुटने पेट में धॅसने के लिए नहीं बने
मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानती हॅू
जिन्होंने चुरा ली
मेरे हिस्से की सारी धूप, सारी जमीन
और मुझे अपनी गलियों में चलने लायक भी नहीं छोडा
सब कुछ जानते हुए भी
कुछ न कर पाना
कितनी पीडा देता है
मेरा हिस्सा चुराने वाले भी इस बात को जानते हैं
इसीलिए
देखते ही मुझे दूर से
पहन लेते हैं काला चश्मा
सोचती हूॅ
सोते हुए तो चश्मा उतारना ही पडता है
तब क्या इन्हें नींद आ पाती होगी।
</poem>
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