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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>अचरज इक -बिन बाती दिया जले

खंभे बिन हवामहल
बालू का किला बना
नीली परछाईं में
रेती ने साँप जना

मोती के हार-फूल परजा के पड़े गले

प्यास बढ़ी
पोखर पर
पानी की हुई ठगी
बूँद-बूँद नदियों पर
राजा की मोहर लगी

खड़े दाम धूप बिकी -कारिंदे बड़े भले

बस्ती में घूम रहा
सिंहासन सोने का
किस्सा है
चाँदी के बिल में
दिन बोने का

खोटे शहजादों के सिक्के दिन-रात चले
</poem>
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