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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>टूटकर बिखरे सडक पर
ढाई आखर
भीड़ इतनी - क्या करें घर

शोर गलियों में
कि सूरज बुझ गया है
रास्तों पर दिन पुराने
डर नया है

बंद कमरों में हवाओं के
थके पर
भीड़ इतनी - क्या करें घर


मोल रिश्तों के
अधूरे इस शहर में
पेड़ की फुनगी
हुई अंधी
अचानक दोपहर में

पाँव ये टिकने न पाते हैं
घड़ी भर
भीड़ इतनी - क्या करें घर

</poem>
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