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|रचनाकार=बैजू मिश्र 'देहाती'
|संग्रह=मैथिली रामायण / बैजू मिश्र 'देहाती'
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<poem>
पठा विभीषण कें करबौलनि,
रावण केर अंतिम संस्कार।
श्राद्ध कर्म सेहो करबौलनि,
राम सनातन विधि अनुसार।
पुनि लक्ष्मणकें पठा करौलनि,
विभीषणक राज्यक अभिशेष।
जय जयकार भेल चहुँ दिशसँ,
जयति अवधपति जय लंकेश।
आबि विभीषण कहल रामसँ,
लंकामे चलि करू निवास।
अहिंक कृपा बल भूपति बनलहुँ,
हम सदैब छी अपनेक दास।
राम कहल सुनु मित्र विभीषण,
भरथ हेता आतिसँ बेहाल।
जौं नहि जैब सपदि रजधानी,
बिगड़ि बात बनि जै कराल।
जाउ शीघ्र सीताकें आनू,
करब सकल जन अरध प्रयाणं
पवन पुत्र संगहिमे रहता,
विश्वासक बनताह प्रमाण।
पहिने गेला सिया लग हनुमत,
कहल सविस्तर सभटा बात।
कोना कोना राक्षस सभ भेटल,
कोना रावणक भेलै निपात।
एतबहिमे लंकापति अएला,
सहस सहस अनुचर छल संग।
बहु प्रकार बाजा गाजा छल,
सबहक पहिरन रंग विरंग।
सबहक आगाँ छलै पालकी,
रत्नजटित बहुमूल्य स्वरूप।
रानी सभक देल ओ वाहन,
तीन लोकमे बनल अनूप।
बैसि गेली ताही पर सीता,
प्रभुक दरश केर छल उत्साह।
हृदयक हर्ष अमित बरणतके,
जनु समुद्र जल होय अथाह।
बाहक संग विभीषण अपनहुँ,
छला लगौने अपनो कान्ह।
अति सैं कृतज्ञता ज्ञापनमे,
देल तोड़ि पैघत्वक कान्ह।
भेल सूचना रामक दलमे,
पालकि पर छथि सिया सवार।
दर्शन कोना करब माताकें,
कयल कीश दल शोर अपार।
सुनितहि व्यथा सैन्य केर रघुपति,
पवन पुत्रकें कहल बजाए।
आबथु सिया शिविरमे पैरे,
सभ क्यो दरशन करए अघाए।
पालन भेल प्रभू केर अज्ञा,
कयल देखि सभ जय जयकार।
खसली सिया पैर पर प्रभुकेर,
हृदय हर्ष छल आर ने पार।
किन्तु राम भारी मन बजला,
अग्नि परीक्षा देबक हैत।
अति विलाश प्रिय छल ओ रावण,
तखनहि दोष अहाँ केर जैत।
आदेशल तखनहि लक्ष्मणकें,
शीघ्र एकटा चिता बनाउ।
सिया परीक्षा देती अग्निमे,
जग कलंक केर दोष मेटाउ।
कानि देलनि लक्ष्मण सुनिते ई,
किन्तु राम केर छल आदेश
पूर्ण कयल हुनकर आज्ञाकें,
देल अग्निमे करा प्रवेश,
जैखन लागल अग्नि चितामे,
लागल तैखन ओ धुधुआए।
पलमे धयलक रूप भंयकर,
जनु असंख्य अहि मिलि फुफुआए।
ज्वाला देखि ककर नहि मनकें,
भय कंपित मन देलक डराए।
गेली सिया ताहीमे नर्भिय,
जनुशीतल जल ग्रीष्मक भाएं
अग्नि प्रेवशक समय सिया केर,
छल अति दारूण दृश्यक रूपं
क्रंदन करूण करै छल सभ क्यो,
नयन विहीन खसल जनुकूप।
तखनहि दृश्य अनूपम देखल,
हर्षक नहि छल पारावारं
सिया छली सिंहसन बैसलि,
अग्नि देव छथि नेने ठार।
बाजि रहल छथि अग्नि देवता,
नहि सीतामे कोनो कलंक।
निर्मल गंगाजल चरित्र छनि,
ग्रहण करू प्रभु भए निःशक।
नभसँ तखनहि पुष्पयान पर,
आएल दसरथ इन्द्र महेश।
अनुमोदल अग्निक वाणीकें,
कहल धन्य छी हे अवधेश।
दसरथ कहल रामसँ तैखनख्
चढ़ा देलहुँ कुल गौरव माथ।
वर मागू सभ देब अहाँकें,
जे चाही हम करब सनाथ।
राम कहल हे हमर पिताश्री,
जौं प्रसन्न छी दिअ वरदान।
होथि मुक्त कैकेयी माता,
अहँक शापसँ भेटनि त्राण।
रामक विपिन गमन केर क्षणमे,
दसरथ देने छला ई शाप।
जन्म जन्म तों ई कैकेयी,
भोगिहह सुत वैधव्यक ताप।
किन्तु टारि नहि सकला रामक,
पवन प्रीतिमय दसरथि भूप।
एवमस्तु कहि बिदा भएगेला,
छला ततए जत स्वर्ग अनूप।
एमहर यान पुष्पक लए अएला,
लंकापति बहुहर्ष समेत।
लयला बहुरत्नादि वस्त्र बहु,
बंटल सैन्यमे मुद संकेत।
अनुमति पाबि सैन्य सभ चलला,
अपन अपन गृह हरषक संग।
</poem>
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