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|रचनाकार=शिव कुमार झा 'टिल्लू'
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<poem>कखनहुँ कखनहुँ अनचोकेमे नैन उठा हमरा दिशि तकितहुँ
विप्लव एहिठां गहन प्रेमकेर उपलैत धार नजरिसँ देखितहुँ
ने मोनक भ्रम हम्मर ने ई दिवास्वप्ने
भरल नेहक निर्झर छल रिझल गति अपने
सहज कौशिकी धार उमड़ि क' कतेक गाम लेस देत
ताहिसँ पहिने दृष्टि दरव केर नोरक मोती अहींटा रखितहुँ
कखनहुँ कखनहुँ अनचोकेमे नैन उठा हमरा दिशि तकितहुँ .......
बाहर जेठक रौदी भीतर दरदक अन्हर
करू ककरा गतिसँ बेकल वियोगक परतर
स्वच्छ निपुण भावक पुरहरिमे क्षणिक मात्र रमि जाउ
नश्वर नहि अछि हमर सेहन्ता शाश्वत प्रेम एक्कोबेरि कहितहुँ
कखनहुँ कखनहुँ अनचोकेमे नैन उठा हमरा दिशि तकितहुँ .......
छी दृढ प्रोषित प्रेयस राखब युग युग आशा
ताकब की नहि ताकब ने कोनो प्रत्याशा
त्याग सिनेहक मूलांकुर थिक चिरकालिक अभ्यास
पुनि माँतल छी कल्पआशमे करब साभार अहाँ जौं अबितहुँ
कखनहुँ कखनहुँ अनचोकेमे नैन उठा हमरा दिशि तकितहुँ .......</poem>
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