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|रचनाकार=शैलजा पाठक
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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>हम उतना ही सुनते हैं
जितने हमारे अपनों की आवाज़ें हैं
हम वही देखते हैं
जो हम चाहते हैं हमारे लिए अच्छा है

हम अपनी ही थाली पर चील सा झपटते हैं
हम अपने आस पास उठाते रहते हैं दीवारें
हम सुरक्षित होने की हद तक
असुरक्षित रहते हैं

हम रोते हैं तो दबा लेते हैं अपना मुंह
हम मुस्कराहट को चिपका कर रखते हैं
जाते हुए बाहर
हम बच्चों की क़िताबों के बीच
गुलाब नहीं सूखे दरख्तों की जली राख रखते हैं
हम ज़िन्दगी का कमाल का हिसाब रखते हैं

हम आंगन में रोप आये हैं कंटीले पौधों की बाड़ें
जानवरों की शक्लें बदली हुई हैं
मिजाज ज़माने का बदल गया है
हम देश की सीमा पर खड़े होकर
गाते हैं चैन से सोने के गीत

हम धरती पर आखिरी बार
आदमी के रूप में पहचाने जायेंगे
हम असली रंग के नहीं रहे अब
हमारी फसलें बर्बाद हो चुकी हैं
मुरदों की कब्रों पर सरकार की व्यवस्था चल रही है
ये देश को बचाने के लिए
उसे एक बार और झोंक देंगे आग में
इनके पास आग से बचने के कपड़े हैं

हमारी आंख से धरती आखिरी बार देखी जायेगी
जानवरों की स्लेट पर धरती का चित्र है
वो सब मुंह में इतिहास को चबा रहे हैं ।</poem>
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