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|संग्रह=राग हंसध्वनि / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - दो</b>

<b>[विदर्भ नगरी कुण्डिनपुर के राजमहल का एक कक्ष| दमयन्ती एकाकी बैठी एक गवाक्ष से बाहर दूर तक फैले सूने पथ को अपलक निहार रही है| उसके मन में विचार चल रहे हैं]</b>

<b>दमयन्ती -</b> (आत्मालाप ) : यह सूना पथ ...
जैसे हो फैला मेरा ही सूना मन -
वर्षों से ऐसे ही मुझको है टेर रहा
और मैं अकेली ही
इस पर ... यात्राएँ करती हूँ बार-बार
स्वप्न में
और यह गवाक्ष ...
हाँ, यही सीमा है मेरी सारी यात्राओं की |

प्रिय मेरे
पता नहीं कहाँ-कहाँ भटक रहे होंगे ...
आज भी -
मेरा मन साक्षी है
यदि समर्थ होते वे
तो अवश्य आ जाते मुझ तक वे निश्चित ही |

यह कैसी अंतहीन पीड़ा है -
नल बिन दमयन्ती का सारा व्यक्तित्त्व ही अधूरा है
और साँस ... ...
जैसे हो एक टीस लंबी सी ...
वर्षों-वर्षों युगों-युगों... हाँ, लंबी |

हाँ, वर्षों-पूर्व यही पथ मेरा बन्धु था |
तब मेरे सपनों में शाश्वत सूर्योदय था |
हंस-युगल आते थे ...
साथ स्वप्न लाते थे मीठे सन्दर्भों के |
और मैं उन्हें पाकर
और अधिक मीठी हो जाती थी |
और फिर ...
आये थे एक दिन मेरे प्रिय ... मेरे नल ...
<b>[ पारदर्शिका में दृश्य उभरता है | कुण्डिनपुर के राजोद्यान में दमयन्ती और प्रिय मुँहलगी सखी केशिनी बातचीत कर रही हैं ]</b>

<b>केशिनी -</b> : हंस नहीं आये आज ....
किन्तु सखी
व्यर्थ नहीं अपने को व्यथित करो |

आज नहीं कल है स्वयंबर तो -
आयेंगे ... महाराज नल अवश्य आयेंगे -
धीर धरो |

<b>दमयन्ती -</b> : कैसे मन धीर धरे ...
यह कातर ...
अपनी ही आतुर जिज्ञासा से |
एक-एक क्षण इसको युग-युग सा लगता है |
काश, यहाँ प्रिय होते
और मैं ...
अपना यह कातर मन सौंप उन्हें
हो जाती ...

<b>[पास के कुञ्ज से अचानक नल बाहर आ जाते हैं | दोनों सखियाँ चकित-स्तंभित रह जाती हैं | सँभलकर केशिनी नल को संबोधित करती है ]</b>

<b>केशिनी -</b> : आप कौन ...?
देवपुत्र अथवा हैं यक्ष कोई ?
अन्य का प्रवेश नहीं संभव है
इस रक्षित उपवन में ...

<b>दमयन्ती -</b> (स्वगत) : सच में हैं देवपुत्र ...
चेहरे पर दीप्ति है अलौकिक -
लगता है स्वयं देव भास्कर ... उतर आये हैं |

<b>[ नल भी दमयन्ती के सौन्दर्य से अभिभूत ठगे-से उसे देखते रह जाते हैं | क्षणार्द्ध के बाद वे पहले स्वयं से बोलते हैं, फिर केशिनी के प्रश्न का उत्तर देते हैं ]</b>

<b>नल -</b> (स्वगत) : कैसा सौन्दर्य यह !
कैसी है आभा यह !
हंसों की चर्चा में इसका सौन्दर्य तो अधूरा था -
उससे तो बहुत अधिक सुंदर है दमयन्ती ...

किन्तु हाय !...
इसका यह रूप और दैवी आकर्षण ही
मेरा हो गया शत्रु -
देवों से वचनबद्ध आया मैं
उनका प्रस्ताव ले ...
अपनी ही प्रिया पास -
कैसा हतभाग्य मैं !

<b>[ पृष्ठभूमि में इंद्र, अग्नि, वरुण और यम की आकृतियाँ झिलमिलाती हैं - उनका सम्मिलित स्वर गूँजता है ]</b>

<b>देव-स्वर -</b> : नल, तुम हो वचनबद्ध -
जाओ, दमयन्ती से जाकर कहो
हमारा संदेश यह ...
हम धरती पर उतरे उसके ही वरण हेतु -
व्यर्थ है स्वयंबर का सारा आयोजन यह |
हममें से किसी एक का ही वह वरण करे -
अमरों की प्रिय बने ...
और अमर हो जाये |

अन्तःपुर में प्रवेश करो सहज
अनदेखे ... रहोगे तुम
यह है वरदान तुम्हें |

<b>नल -</b> (स्वगत) : कैसा है कठोर यह दौत्य कर्म !
कैसे दमयन्ती को परिचय दूँ अपना मैं ...
देवों का कैसे संदेश कहूँ ?

हंसों ने बाँधा है
जिस कोमल धागे से हम दोनों के मन को ...
एक में ...
उसको कैसे तोडूँ ?
हाय, नियति ! कैसी है क्रूर तू !

<b>(प्रकट में)</b> नैषध मैं राजपुरुष ...
आया संदेश ले ...

<b>केशिनी -</b> : ... महाराज नल का -
स्वागत है राजपुरुष !
ये विदर्भ राजा की पुत्री हैं दमयन्ती
क्या है संदेश, कहो |

<b>[ तभी दमयन्ती केशिनी के कान में कुछ कहती है - सुनकर केशिनी मुस्कराती है - शरारत से कहती है ]</b>

अहा, महाराज स्वयं आये हैं ...
कैसी मैं मूर्खा हूँ ... क्षमा करें -
आज्ञा दें मुझे ...
आप दोनों एकांत में ...

<b>[ शरारती हँसी के साथ दूर चली जाती है | नल दमयन्ती से कहते हैं ]</b>

<b>नल -</b> : देवी ! ...मैं आया हूँ ...लेकर संदेश ...
अमर देवों का |

आया था कुण्डिनपुर...
इच्छा ले ... सपने ले ...
हंसों के संदेशों से उपजी प्रीति लिये...
किन्तु, हाय !
देवों ने मार्ग रोक मुझे छला
और मैं हुआ उनका दास हूँ |
यह जो नल ...
हंसों की गाथा का नल नहीं ...
देवों का दूत हूँ |

आप हैं अलौकिक, सच, रूपवती -
अमर हुए हैं मोहित आप पर -
उनका संदेश यह -
वरें उन्हें ... अमर बनें |


<b>[ दमयन्ती के चेहरे पर अविश्वास - विस्मय और हताशा के भाव एक साथ उभरते हैं | वह खंडित स्वप्न की पीड़ा के साथ बोलती है ]</b>

<b>दमयन्ती -</b> : नहीं ... आर्यपुत्र नहीं ...
ऐसे मत छ्लें मुझे -
मैं तो बस आपकी ...
हाँ, केवल आपकी |

मन-आत्मा युग-युग से नल के हैं -
देह भी उन्हीं की है |
अमरों का इन पर अधिकार नहीं ...
मेरे आराध्य आप हैं केवल |

<b>नल -</b> : देवी दमयन्ती, मैं क्या करूँ ...
देवों ने तुम्हें वरा -
मुझे किया वचनबद्ध |

पूजनीय और समर्थ हैं देवगण -
हम बौने - शक्तिहीन मानव हैं
क्या करें ?
उनकी अवमानना करने से ...

<b>दमयन्ती -</b> : क्या होगा ...?
देवों की भी तो अपनी मर्यादा है -
होते हैं सृष्टि-नियम भी तो कुछ
जिनसे हैं वे भी तो बँधे हुए |
मानव में आत्मा का जो बल है
वह तो है सर्वोपरि -
देव हैं नियंता इस धरती के - केवल इस देह के
मन-आत्मा तो उनके नियंत्रण से परे, सुनो !
प्रीति का अमरत्व तो...
उनके अमरत्व से ऊपर है -
वही है, सखे, अपना ,,. संबल |

कल बौने मानव की आस्था वे देखेंगे |

वर चुनना नारी का मौलिक अधिकार है
और मैं चुनूँगी कल ...
अपने आराध्य को ...
जो सच्चे अर्थ में देवों से श्रेष्ठ हैं |

मानव की गरिमा का होगा अध्याय यह ...
देव दृश्य देखेंगे विस्मय से -
नल और दमयन्ती हैं पृथक नहीं ...
एक-मन... एक हैं आत्मा से
आज से नहीं ...
यह बंधन तो है जन्म-जन्मों का |
देव क्या ...
प्रभु भी स्वीकारेंगे सत्य यह स्वयंबर में -
प्रण यह दमयन्ती का |

<b>[ नल विस्मय से दमयन्ती का यह तेजस्वी र्रूप देखते रह जाते हैं | पारदर्शिका धुँधला जाती है | दमयन्ती वर्तमान में वापस आ जाती है ]</b>

<b>दमयन्ती -</b> (आत्मालाप) : और फिर ...
आया दिन ...
मानव की आस्था के पर्व का |
मेरा वह नेह-प्रण प्रभु ने स्वीकार किया -
देवों के सारे छल व्यर्थ गये -
रूप धरा था देवों ने नल का -
नारी की सहज वृत्ति काम आई
और मैं खरी उतरी उस प्रणय-परीक्षा में |
देव भी प्रसन्न हुए -
देकर वरदान गये |

<b>[ दूर से समय के अन्तराल को भेदती हुई देववाणी सुनाई देती है ]</b>

<b>देववाणी -</b> : धन्य हो- दमयन्ती धन्य हो !
नल. तुम भी !
दोनों की प्रीति यह अनूठी है -
लौकिक है और है अलौकिक भी -
देवों को दुर्लभ है |

यह आस्था मानव की देवोपरि शक्ति है -
हम इसको देखकर सुखी हुए |

दमयन्ती !
तुमने है सिद्ध किया
नारी है महाप्राण और महाप्रज्ञ भी -
उसकी आत्मास्था से देव भी पराजित हैं |
प्रीति यह तुम्हारी रहे ...
अनंत सौभाग्यवती |

नल, तुमने अपने आत्म-संयम से
हमको है तुष्ट किया -
हम चारों देवों की क्षमताएँ मिलें तुम्हें |
तुम समर्थ रहो सदा -
विपदा में भी हो नहीं कभी भी निरीह और दीन |
मानव हो ...
पीड़ा में तपो और शुद्ध बनो |

<b>[देववाणी का स्वर धुँधला जाता है | दमयन्ती के चेहरे पर उन सुखद पूरा-स्मृतियों से उपजा सुख-संतोष का भाव उसे अपूर्व बना देता है ]</b>
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