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|संग्रह=अंतिम महारास / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - एक</b>

<b>[वृन्दावन - बालकृष्ण की माखन चोरी लीला का प्रसंग नन्द भवन में गोपियों का सामूहिक रोष-प्रदर्शन]</b>

<b>एक गोपी -</b> <b>[नन्हें कान्हा को हाथ से पकड़कर मैया यशोदा के सामने पेश करते हुए ]</b> -

सुन जसुदा ! यह जो तेरा लाला है
नटखट है और है उपद्रवी
हम सब हैं बड़े दुखी इसकी शैतानी से ...

<b>दूसरी गोपी -</b> माखन का दुश्मन यह महाचोर !
पता नहीं
हम सबका
किन जन्मों का है यह वैरी |
माखन तो खाये सो खाये ही
सारे ही भांडे तोड़ जाये है
वानर भी साथ लाये है
घर-भर में माखन बिखराये है |

<b>[यशोदा कृष्ण को पकड़कर पहले तो हाथ से पीटती हैं, फिर मथानी की रस्सी लेकर उससे पीटने का उपक्रम करती हैं | तभी राधा भागती हुई आती है और कृष्ण को छेंककर खड़ी हो जाती है | जब तक यशोदा रानी संभलें-संभलें, राधा को रस्सी के दो-चार आघात पड़ ही जाते हैं | सारी गोपियाँ और यशोदा भी एकदम हतप्रभ हो जाती हैं | राधा कृष्ण से वय में थोड़ी बड़ी है, किन्तु कोमल आकृति और देह के कारण समवयस्क लगती है]</b>

<b>यशोदा -</b> री छोरी बावरी !
यह तूने क्या किया ?
मरी, इस मुँहजले को बचाती है -
यह तो है महादुष्ट ...
चोट तो नहीं आई तुझे, लली ?

<b>[यशोदा राधा को अपनी गोद में समेटकर पश्चात्ताप और नेह के मिले-जुले भाव से उसके कंधों को, पीठ को सहलाती हैं | इसी बीच कृष्ण मौका देखकर भाग जाते हैं | राधा के चेहरे पर सुख और संतोष का भाव उभरता है| उलाहना देने आईं गोपियाँ भी एक-एककर चली जाती हैं]</b>

<b>कथा वाचन</b> - ऐसे ही राधा ने झेली हैं
सारी पीड़ाएँ
सहन किये
सारे ही कष्ट और संकट भी
कान्हा के |

कान्हा से
यह अभिन्न होने का
राधा का नेह-भाव
सुख देगा अनुपमेय कुछ क्षण के
युग-युग तक उसको तड़पायेगा |

<b>[कृष्ण का विचार-स्वर उभरता है | पूर्व-दृश्य भी]</b>

<b>विचार स्वर</b> - राधे ! हे राधन !
तू कहाँ गई बालसखी ?
युग-युग की सहचरी !
तेरा यह कनु आज
कितना एकाकी है, देख तो |

कान्हा जो संगी था तेरा -
सहचर महारासों का
वंशी के अचरज जो रचता था
कल करील-कुंजों में,
वंशी के सुर से जो बुनता था
रात-रात
रजत-रश्मि के दुलार,
वह कान्हा
हाँ, तेरा वह कान्हा
लगता कोई और था -
यह नहीं
जो बैठा ढलती संध्याओं के द्वीप पर
थका हुआ देख रहा
युग का यह संधिकाल एकाकी
जिसमें हैं महानाश की यादें
परत-दर-परत
और ...
आगे है दूर तक अंधा भविष्य सिर्फ |

कैसा है अचरज -
सार्वजनिक प्रेम से
सार्वजनिक हत्या तक
कैसी थी यह यात्रा |
निर्मम मैं बना रहा दोनों में -
यही एक मेरा पुरुषार्थ रहा |

वंशी की धुन मीठी
शांत नदी-तट पर हो
या कि ...
महायुद्धों में बार-बार बजता हो
शंखों का महाघोष -
दोनों में आत्मालाप होता है एक ही |
महासमर में भी तो
बार-बार वंशीधुन गूँजी थी |
आहत या हत जो भी हुआ वहाँ
वह भी मैं ही था ...
या मेरी वंशी थी |

<b>कथा वाचन</b> - महासमर ...
संहारक महायुद्ध समाप्त हुआ -
कितने ही क्षत्रिय कुल नष्ट हुए -
धार्तराष्ट्र सभी मरे -
केवल पाँच पांडव ही शेष बचे |
दोनों ही टूटे हैं - जित और जेता |
किसी तरह पांडव-कुल की
अंतिम सांसों की रक्षा कर
लौट रहे कृष्ण अपनी नगरी को ...

रथ पर एकाकी हैं कृष्ण
ध्यान-मग्न ... थके-थके |

<b>[दृश्य उभरता है]</b>


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