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|संग्रह=अंतिम महारास / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - छः</b>

<b>कथा वाचन</b> - वर्षों का अन्तराल -
केशव का धर्मचक्र घूम रहा सभी ओर...
जहाँ-जहाँ खंडित हैं हुए न्याय और धर्म
वहीं-वहीं कृष्ण ... रहे हैं उपस्थित |
दुष्कर्मों का विनाश करने का प्रण उनका |

केशव का निर्देशन
और शक्ति-धर्मबुद्धि-दृष्टि पाण्डुपुत्रों की -
संयोजन दोनों का
इन्द्रप्रस्थ हुआ केंद्र जन-जन की आस्था का -
पुण्य का - मानव-कल्याण का |
सुख-समृद्धि भी व्यापे सहज वहाँ |

मगधराज जरासंध -
केंद्रबिंदु आसुरी विकृतियों का -
महाबली भीम के हाथों विनष्ट हुआ -
धर्मराज सत्ता के केंद्र बने -
राजसूय यज्ञ हुआ
और ...

<b>[इन्द्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ के आयोजन का दृश्य | विस्तृत यज्ञभूमि में बने विशाल यज्ञ-मंडप तले अग्रपूजा का अवसर | सहदेव जल-पात्रादि लेकर कृष्ण की पूजा के लिए प्रस्तुत हैं | तभी राजाओं-महाराजाओं से भरी सभा में चेदिराज शिशुपाल खड़ा हो जाता है - सहदेव को रोकते हुए कहता है]</b>

<b>शिशुपाल -</b> ठहरो सहदेव ! जरा ठहरो !
सोचो तो यह अनर्थ कैसा तुम कर रहे
पूज रहे इस कायर ग्वाले को ?
भीष्म- द्रोण-दुर्योधन
और कई अन्य वीर योद्धा, महाराजे
ज्ञानी-विद्वान् हैं उपस्थित यहाँ -
उनका अपमान यह |

जिसको तुम कहते हो वासुदेव
यदुवंशी वार्ष्णेय
वह तो बस गोकुल का साधारण ग्वाला है
इतना ही सत्य है |
बचपन से हत्यारा है रहा यह दुर्मति -
बेचारी पूतना दुलराने आई थी -
उसकी माँ की ममता -
स्त्री का हन्ता यह |
गोपों ने रच लीं ...
मनगढंत जादुई कहानियाँ -
पूजनीय बना दिया इस पामर-नीच को |
वास्तव में यह तो है माटी का माधो बस |

फिर इसने अपने ही मामा की हत्या की -
राजा भी इसका था वह अवध्य |
मामा यह कहता है कंस को किस मुँह से |

चोर और लंपट यह रहा है सदा का ही -
बचपन से रास किया करता था यह तो
भोली गोपियाँ को इसने था छला
और ...फिर
सोलह हजार कन्याओं को भ्रष्ट किया |
मूर्खा थी रुक्मिणी ...
हरा उसे इसने देव-मन्दिर से -
अब तक है सालता मुझको
इसका दुष्कृत्य वह -
मेरी वाग्दत्ता थी रुक्मिणी |
लाज नहीं आई इसे उसे हरण करने में |

महाछ्ली ...
कभी भी इसने युद्ध नहीं किया
खुलकर सामने -
यह तो रणछोड़ है जग-प्रसिद्ध |
मगधराज से डरकर
मथुरा से भागकर छिपा जाकर
यह सागर-तट पर |
महाबली भीम के हाथों से इसने
करवाई हत्या अंत में मगधपति की
छल से ही -
छल ही बस इसका पुरुषार्थ है |

पूजनीय यह केवल गोपों के कुल में |
राधा का उपपति यह ... ...

<b>[शिशुपाल इसके आगे कुछ बोल पाये, इसके पूर्व ही बिजली की-सी कड़क के साथ एक तेज जोत-पुंज की कौंध होती है | कृष्ण की ऊँगली पर एक ज्योति-वलय प्रकट होता है और पलक झपकते ही वह प्रकाश-चक्र शिशुपाल के सिर को काटता हुआ कृष्ण के पास वापस आ जाता है | शिशुपाल की देह से एक सूक्ष्म प्रकाश-रेखा कौंधती है, जो कृष्ण के शरीर में समा जाती है | कृष्ण की देह एक विराट प्रकाश-स्तंभ –सी ज्योतिर्मय हो जाती है | सारी सभा स्तंभित-चकित ठगी-सी खड़ी रह जाती है - कृष्ण के प्रकाश की दमक से सबकी आँखें बंद हो जाती हैं | वंशीधुन सुनाई देती है और फिर राधा की ज्योतिमयी आकृति कृष्ण के प्रकाश-पुंज स्वरूप में झलकती है | सभी ओर परम शांति छा जाती है]</b>

<b>कथा वाचन</b> - राधा है प्रेम और शक्ति
दोनों ही कृष्ण की |
राधा का तिरस्कार घातक है |
केशव को सह्य है अपना अपमान
किन्तु राधा का तिरस्कार ...कभी नहीं |

सीमा शिशुपाल ने लाँघी जब
उस सात्त्विक प्रेम की -
जो राधा-भाव में समाहित है -
उस क्षण ही
उसने आमंत्रित की राधा की शक्ति वह
जिसके स्वीकार में
पृथक भाव देह और देही का
हो जाता है विलीन |
मुक्त हुआ यों है शिशुपाल भी |
राधा से विग्रह भी कल्याणी होता है |

यह था अध्याय उसी राधा की शक्ति का
आगे यह शक्ति ...
और रूपों में आयेगी -
राधा है विविध-रूप |

</poem>
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