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|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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आम तौर से तो कहा यही जाता है कि शायर या कवि अपने आँसुओं को रौशनाई बना लेता है...ऐसी रौशन स्याही जो अँधेरे और उजाले दोनों में छुपी हुई जीवन की सच्ची कहानियों को ग़ज़ल के साँचे में ढ़ाल देती है | लेकिन महाज़े-जंग पर अपनी सरहद, अपनी धरती और अपने देश की आबरू बचाने वाले सच्चे फ़ौजी की आँखों में आँसू कभी नहीं आते | वो तो सारी ज़िन्दगी दुश्मनों से जंग करने में उलझा रहता है | जब जंग का जमाना नहीं होता तो उसे मौसमों से जंग करनी पड़ती है, इनमें वो मौसम भी होते हैं जब ख़ून जिस्म के अन्दर रगों से चिपक कर गर्मी की तलाश करता है तो कभी रेगिस्तानों से उड़ने वाली धूल उसकी आरजुओं के बाल तक सफ़ेद कर देती है | लेकिन वो अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे नहीं हटता है...यूँ भी फ़ौज के कानून में पीछे हटने वाले को दुनिया और समाज दोनों ही अच्छी नज़र से नहीं देखते | ऐसे हालात में जीवन के सुख-दुख और ग़ज़ल की परम्परा को बरक़रार रखने में एक शायर को सचमुच अपने ख़ूने-जिगर का इस्तमाल करना पड़ता है | आलोचकों ने हमेशा ये संकेत दिये हैं कि ग़ज़ल ख़ूने-जिगर माँगती है और एक फ़ौजी जो शायर भी होता है वो हँसते हुये कहता है कि उसका ख़ून या देश के लिए होता है या उसके क़लम के लिए जिससे वो ज़िन्दगी की कहानी लिखना चाहता है | कर्नल गौतम एक ऐसे ही फ़ौजी शायर हैं | कश्मीर के बर्फ़ीले पहाड़ से मुझ तक पहुँची ये ग़ज़लें अपनी नज़ाकत और अपने नए लहज़े से इस बूढ़े शायर को जहाँ एक ओर हैरान करती हैं, वहीं दूसरी ओर बहुत आश्वस्त भी करती हैं कि ग़ज़ल हमारे बाद की पीढ़ी के सशक्त हाथों में महफ़ूज है |
अच्छी ग़ज़ल वो कभी नहीं होती जो अपने मीटर के दायरे में सलीके से समा जाती है, बल्कि अच्छी ग़ज़ल वो होती है जिसके शरीर पर ज़िन्दगी, समाज, हालात, बिखरते-टूटते रिश्ते, बिछड़ते-छूटते चेहरे और अपने दोस्तों के ग़म दिखाई देते हैं | मिर्ज़ा ग़ालिब बड़ी विनम्रता लेकिन कठोर लहज़े में कहते हैं- “सौ साल से है पेशा-ए-आबा सिपहगरी / कुछ शायरी ज़रीया-ए-इज़्ज़त नहीं मुझे” | ग़ालिब का ये शेर मेरी उपरोक्त बात का समर्थन करता है | ग़ज़ल के दूसरे बड़े शायर फैज़ अहमद फैज़ का सारा कलाम चीख़-चीख़ कर अपने जीवन की दर-बदरी और अपने फ़ौजी जीवन के कठोर दिनों की कहानी बयान करता है | हाँ, इतना फ़र्क ज़रूर होता है कि दुश्मन के दिये हुये ज़ख़्म अपनों को दिखाते हुये गर्व होता है लेकिन अपनों के दिये हुये ज़ख़्मों को हमें सारी दुनिया से छुपाना होता है | जीवन की इसी चक्की के दो पाटों के बीच पीसने का नाम शायरी है |
मुझे फख्र है कि मैंने कर्नल गौतम की ग़ज़लों को पढ़ा, आँखों से चूमा और सीने से लगाया है | तिरसठ बरस के इस बूढ़े शायर को गौतम राजरिशी की शायरी से निकलती हुई आँच की ज़रूरत पड़ती है | मैं मिसाल के तौर पर गौतम की ग़ज़लों के कुछ शेर पढ़ने वालों के हवाले करना चाहता हूँ, लेकिन मेरी सादा मिज़ाजी इस बात की इज़ाजत नहीं देती कि मैं कुछ शेर यहाँ पर लिखूँ | इससे पढ़ने वालों की सोच में भटकाव आता है और वैसे भी अच्छी शायरी उस मिठाई की दुकान की तरह नहीं होती जिसे “सैम्पल पैक” के ज़रीये पेश किया जाये | मेरी दिली दुआ है कि गौतम अपनी शायरी से इसी तरह अदब और साहित्य के ख़ज़ाने को मालामाल करते रहेंगे…
“हमें ख़बर है कि हम हैं चराग़-ए-आख़िरे-शब
हमारे बाद अँधेरा नहीं उजाला है”
'''-[[मुनव्वर राना]]'''
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|रचनाकार=गौतम राजरिशी
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आम तौर से तो कहा यही जाता है कि शायर या कवि अपने आँसुओं को रौशनाई बना लेता है...ऐसी रौशन स्याही जो अँधेरे और उजाले दोनों में छुपी हुई जीवन की सच्ची कहानियों को ग़ज़ल के साँचे में ढ़ाल देती है | लेकिन महाज़े-जंग पर अपनी सरहद, अपनी धरती और अपने देश की आबरू बचाने वाले सच्चे फ़ौजी की आँखों में आँसू कभी नहीं आते | वो तो सारी ज़िन्दगी दुश्मनों से जंग करने में उलझा रहता है | जब जंग का जमाना नहीं होता तो उसे मौसमों से जंग करनी पड़ती है, इनमें वो मौसम भी होते हैं जब ख़ून जिस्म के अन्दर रगों से चिपक कर गर्मी की तलाश करता है तो कभी रेगिस्तानों से उड़ने वाली धूल उसकी आरजुओं के बाल तक सफ़ेद कर देती है | लेकिन वो अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे नहीं हटता है...यूँ भी फ़ौज के कानून में पीछे हटने वाले को दुनिया और समाज दोनों ही अच्छी नज़र से नहीं देखते | ऐसे हालात में जीवन के सुख-दुख और ग़ज़ल की परम्परा को बरक़रार रखने में एक शायर को सचमुच अपने ख़ूने-जिगर का इस्तमाल करना पड़ता है | आलोचकों ने हमेशा ये संकेत दिये हैं कि ग़ज़ल ख़ूने-जिगर माँगती है और एक फ़ौजी जो शायर भी होता है वो हँसते हुये कहता है कि उसका ख़ून या देश के लिए होता है या उसके क़लम के लिए जिससे वो ज़िन्दगी की कहानी लिखना चाहता है | कर्नल गौतम एक ऐसे ही फ़ौजी शायर हैं | कश्मीर के बर्फ़ीले पहाड़ से मुझ तक पहुँची ये ग़ज़लें अपनी नज़ाकत और अपने नए लहज़े से इस बूढ़े शायर को जहाँ एक ओर हैरान करती हैं, वहीं दूसरी ओर बहुत आश्वस्त भी करती हैं कि ग़ज़ल हमारे बाद की पीढ़ी के सशक्त हाथों में महफ़ूज है |
अच्छी ग़ज़ल वो कभी नहीं होती जो अपने मीटर के दायरे में सलीके से समा जाती है, बल्कि अच्छी ग़ज़ल वो होती है जिसके शरीर पर ज़िन्दगी, समाज, हालात, बिखरते-टूटते रिश्ते, बिछड़ते-छूटते चेहरे और अपने दोस्तों के ग़म दिखाई देते हैं | मिर्ज़ा ग़ालिब बड़ी विनम्रता लेकिन कठोर लहज़े में कहते हैं- “सौ साल से है पेशा-ए-आबा सिपहगरी / कुछ शायरी ज़रीया-ए-इज़्ज़त नहीं मुझे” | ग़ालिब का ये शेर मेरी उपरोक्त बात का समर्थन करता है | ग़ज़ल के दूसरे बड़े शायर फैज़ अहमद फैज़ का सारा कलाम चीख़-चीख़ कर अपने जीवन की दर-बदरी और अपने फ़ौजी जीवन के कठोर दिनों की कहानी बयान करता है | हाँ, इतना फ़र्क ज़रूर होता है कि दुश्मन के दिये हुये ज़ख़्म अपनों को दिखाते हुये गर्व होता है लेकिन अपनों के दिये हुये ज़ख़्मों को हमें सारी दुनिया से छुपाना होता है | जीवन की इसी चक्की के दो पाटों के बीच पीसने का नाम शायरी है |
मुझे फख्र है कि मैंने कर्नल गौतम की ग़ज़लों को पढ़ा, आँखों से चूमा और सीने से लगाया है | तिरसठ बरस के इस बूढ़े शायर को गौतम राजरिशी की शायरी से निकलती हुई आँच की ज़रूरत पड़ती है | मैं मिसाल के तौर पर गौतम की ग़ज़लों के कुछ शेर पढ़ने वालों के हवाले करना चाहता हूँ, लेकिन मेरी सादा मिज़ाजी इस बात की इज़ाजत नहीं देती कि मैं कुछ शेर यहाँ पर लिखूँ | इससे पढ़ने वालों की सोच में भटकाव आता है और वैसे भी अच्छी शायरी उस मिठाई की दुकान की तरह नहीं होती जिसे “सैम्पल पैक” के ज़रीये पेश किया जाये | मेरी दिली दुआ है कि गौतम अपनी शायरी से इसी तरह अदब और साहित्य के ख़ज़ाने को मालामाल करते रहेंगे…
“हमें ख़बर है कि हम हैं चराग़-ए-आख़िरे-शब
हमारे बाद अँधेरा नहीं उजाला है”
'''-[[मुनव्वर राना]]'''