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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
तू जिसकी ताक में मचान पर यूँ बेक़रार है
बगल की शाख़ से वो तेरा करने को शिकार है
उलझ पड़ा था एक बार जुगनुओं की टोली से
हरेक रात तब से आफ़ताब वो फ़रार है
ले मुट्ठियों में पेशगी महीने भर मजूरी की
वो उलझनों में है खड़ा कि किसका क्या उधार है
मैं रोऊँ अपने क़त्ल पर या इस ख़बर पे रोऊँ मैं
कि क़ातिलों का सरग़ना तो हाय मेरा यार है
इधर है खौफ़ बाढ़ का, बहस में दिल्ली है उधर
नदी का ज़ोर तेज़ है कि बाँध में दरार है
उतारने को चोटियों से घाटियों में धूप को
उठा रहा है सर को अपने, ज़िद पे देवदार है
उठाए फिर रही है जाने बोझ कितना ये हवा
कि मौसमों में खलबली मचा रही बहार है
(त्रैमासिक नई ग़ज़ल-जुलाई 2013, मासिक आजकल 2014)
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|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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तू जिसकी ताक में मचान पर यूँ बेक़रार है
बगल की शाख़ से वो तेरा करने को शिकार है
उलझ पड़ा था एक बार जुगनुओं की टोली से
हरेक रात तब से आफ़ताब वो फ़रार है
ले मुट्ठियों में पेशगी महीने भर मजूरी की
वो उलझनों में है खड़ा कि किसका क्या उधार है
मैं रोऊँ अपने क़त्ल पर या इस ख़बर पे रोऊँ मैं
कि क़ातिलों का सरग़ना तो हाय मेरा यार है
इधर है खौफ़ बाढ़ का, बहस में दिल्ली है उधर
नदी का ज़ोर तेज़ है कि बाँध में दरार है
उतारने को चोटियों से घाटियों में धूप को
उठा रहा है सर को अपने, ज़िद पे देवदार है
उठाए फिर रही है जाने बोझ कितना ये हवा
कि मौसमों में खलबली मचा रही बहार है
(त्रैमासिक नई ग़ज़ल-जुलाई 2013, मासिक आजकल 2014)