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Kavita Kosh से
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है: <br>
हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल <br>
केवल परदा है-- हैं— <br>
विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं: <br>
सिंचाई की नहरों के टूटे हुए कगारों पर <br>
बाँस की टट्टियाँ धोखे की हैहैं: <br>
भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं, <br>
मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही <br>
उन के पार है। <br><br>
बन्दूक़ के कुन्दे से <br>
उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती हैं, <br>
उधर भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत <br>
लूट की बोटियों से अधिक है-- है— <br>
पर <br>
अभी कुछ नहीं बदला है <br>
यह स्नेह और विश्वास <br>
जो हमें बताता है <br>
कि हम भारत के लाल हैं-- हैं— <br>
वही हमें यह भी याद दिलाता है <br>
कि हमीं इस पुण्य-भू के <br>
क्योंकि तुम बल हो: <br>
तेज दो, जो तेजस् हो, <br>
ओज दो, जो ओजस् हो, <br>
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो <br>
हमें ज्योति दो, देशवासियों, <br>
हमें कर्म-कौशल दो: <br>
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है, <br>
अभी कुछ नहीं बदला है... <br> <br> <br>
<span style="font-size:14px">सितम्बर १९६५ <br/span>
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