भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
|सारणी=भाषा और साहित्य पर लेख
}}
यह सर्वमान्य तथ्य है कि हिन्दी साहित्य और भारतीय कला जगत रचनात्मकता के लिये लिए सीमा के किसी बंधन को नहीं मानता । भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही प्रवासियों द्वारा कला के विभिन्न स्वरूपों को आत्मसात किया गया है। एक शताब्दी पूर्व सन् 1900 ई0 के लगभग जापानी साहित्यकार [[मासाओका शिकि]] ( 1867-1902) ने विशिष्ट जापानी छंद “होक्कु” को एक नया नाम हाइकु (Haiku) दिया जिसने लोकप्रियता के बडे बड़े मानकों को प्राप्त किया। आज जापान में लाखों लोग इस छन्द में रचना करते हैं । भारत की अनेक भाषाओं के साथ -साथ हाइकु विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में लिखा और पढ़ा जा रहा है । भारतीय साहित्य की उर्वरा भूमि को यह कविवर [[रवीन्द्रनाथ ठाकुर]] का जापानी तोहफा है।
==नवीनतम विधा है हाइकु ==
यह सर्वमान्य तथ्य है कि हिन्दी साहित्य और भारतीय कला जगत रचनात्मकता के लिये सीमा के किसी बंधन को नहीं मानता । भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही प्रवासियों द्वारा कला के विभिन्न स्वरूपों को आत्मसात किया गया है।
* हिन्दी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में से एक नवीनतम विधा है हाइकू हाइकु । हाँलांकि यह विधा लगभग एक शताब्दी पूर्व सन् 1919 में कविवर [[रवीन्द्रनाथ ठाकुर]] के द्वारा अपनी जापान यात्रा से लौटने के पश्चात उनके ‘जापान यात्री’ में प्रसिद्ध जापानी हाइकु कवि [[मात्सुओ बाशो]] की हाइकु कविताओं के [[हाइकु / रवीन्द्रनाथ ठाकुर| बंगला भाषा में अनुवाद]] के रूप में सर्वप्रथम हिन्दुस्तानी धरती पर अवतरित हुई परन्तु इतने पहले आने के बावजूद लंबे लम्बे समय तक यह साहित्यिक विधा हिन्दुस्तानी साहित्यिक जगत में अपनी कोई विशेष पहचान नहीं बना सकी। इस प्रकार [[रवीन्द्रनाथ ठाकुर]] के द्वारा जापानी हाइकु कविताओं के [[हाइकु / रवीन्द्रनाथ ठाकुर| बंगला भाषा में अनुवाद]] के माध्यम से भारतीय साहित्य उर्वरा भूमि में हाइकु का बीजारोपण तो हो गया ;परन्तु इस बीज के अंकुरित होकर विकसित होने के लिये लिए जिस अनुकूल वातावरण की आवश्यकता थी वह श्रदेय श्रद्धेय [[अज्ञेय]] के माध्यम से मिला।*हिन्दी भाषा में [[हाइकु / अज्ञेय| हाइकु की प्रथम चर्चा]] का श्रेय [[अज्ञेय]] को दिया जाता है, उन्होंने छठे दशक (१९६०1960) में [[अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय|अरी ओ करुणा प्रभामय]] (१९५९1959) में अनेक हाइकुनुमा छोटी कविताएँ लिखी हैं ;जो [[हाइकु]] के बहुत निकट हैं। जिन पर अब भी लगातार शोध जारी है।
*प्रो० डा० [[सत्यभूषण वर्मा]] ने हिन्दी साहित्य संसार को सबसे पहले हाइकु से परिचित कराया तथा अन्तर्देशीय पत्र प्रकाशित कर हाइकु को चर्चित किया।
* वर्तमान में संसार भर में फैले हिंदुस्तानियों की इन्टरनेट पर फैली रचनाओं के माध्यम से यह विधा हिन्दुस्तानी कविता -जगत में ही नही वरन् विभिन्न देशों में हिन्दी काव्य -जगत् में प्रमुखता से अपना स्थान बना रही है।
==इस विधा का काव्य अनुशासन==
कुछ लोग इस विधा की तुलना हिन्दी काव्य विधा [[त्रिवेणी]] से करते हैं। हाइकु और [[त्रिवेणी]] में केवल इतनी समानता है कि दोनों में केवल तीन पंक्तियाँ होती है इन तीन पक्तियों की साम्यता पंक्तियों के साम्य के अतिरिक्त अधिक इन दोनो विधाओं में अन्य कोई साम्य नहीं है। हाइकु के अनुरूप [[त्रिवेणी]] भी तीन पंक्तियों वाली कविता है, यह माना जाता है कि [[त्रिवेणी]] विधा को [[गुलज़ार]] साहब ने विकसित किया। [[त्रिवेणी / गुलज़ार| त्रिवेणी]] की रचना का मूल प्रेरणा स्रोत भी जापानी काव्य ही कहा जाता है।
इस जापानी विधा को हिन्दी काब्य जगत के अनुशासन से परिचित कराते हुए डॉ0 [[जगदीश व्योम]] ने बताया है:-
* हाइकु सत्रह (17) वर्णों में लिखी जाने वाली सबसे छोटी कविता है। इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति में 5 वर्ण दूसरी में 7 और तीसरी में 5 वर्ण रहते हैं।
* अनेक हाइकुकार एक ही वाक्य को 5-7-5 वर्ण क्रम में तोड़कर कुछ भी लिख देते हैं और उसे हाइकु कहने लगते हैं। यह सरासर गलत है, और हाइकु के नाम पर स्वयं को छलावे में रखना मात्र है।
* हाइकु कविता में 5-7-5 का अनुशासन तो रखना ही है, क्योंकि यह नियम शिथिल कर देने से छन्द की दृष्टि से अराजकता की स्थिति आ जाएगी।
* इस संबंध में डा० ब्योम जी का मानना है कि हिन्दी अपनी बात कहने के लिये अनेक प्रकार के छंदों का प्रचलन है ; अतः उपर्युक्त अनुशासन से भिन्न प्रकार से लिखी गयी गई पंक्तियों को हाइकु न कहकर मुक्त छंद अथवा [[क्षणिका]] ही कहना चाहिये।चाहिए।* वास्तव में हाइकु का मूल स्वरूप कम शब्दों में ‘घाव करें गंभीर गम्भीर ’ की कहावत को चरितार्थ करना ही है। अतः शब्दों के अनुशासन से इतर लिखी गयी रचना को हाइकु कहकर संबोधित करना उसके मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड ही कहा जायेगा।जाएगा।
प्रकृति के भावप्रवण चित्रण हेतु हाइकु एक सशक्त विधा है ।
* एक कवि प्रथम 5+7+5=17 भाग की रचना करता था तो दूसरा कवि दूसरे भाग 7+7 की पूर्त्ति के साथ शृंखला को पूरी करता था । फिर पूर्ववर्ती 7+7 को आधार बनाकर अगली शृंखला में 5+7+5 यह क्रम चलता;फिर इसके आधार पर अगली शृंखला 7+7 की रचना होती थी ।
* इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था । इस प्रकार की शृंखला सूत्रबद्धता के कारण यह संख्या 100 तक भी पहुँच जाती थी ।
* [[ताँका]] पाँच पंक्तियों और 5+7+5+7+7= 31 वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है ।
* इसमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु है । इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है ।
*ताँका -शब्द का अर्थ है लघुगीत । लयविहीन काव्यगुण से शून्य रचना छन्द का शरीर धारण करने मात्र से ताँका नहीं बन सकती ।
*साहित्य का दायित्व बहुत व्यापक है अत: ताँका को किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता।
* [[सुधा गुप्ता ]] का '''सात छेद वाली मैं ''' और झरे हरसिंगार [[रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु']] का '''झरे हरसिंगार''' चर्चित ताँका -संग्रह हैं
==[[चोका]]==
* वास्तव में [[कविता कोश के मानक| हाइगा]] जापानी पेण्टिंग की एक शैली है,जिसका शाब्दिक अर्थ है-’चित्र-कविता’ ।
*[[कविता कोश के मानक| हाइगा]] दो शब्दों के जोड़ से बना है …(‘‘हाइ” = कविता या हाइकु + “गा” = रंगचित्र चित्रकला)
*[[कविता कोश के मानक| हाइगा]] की शुरुआत १७ 17 वीं शताब्दी में जापान में हुई | उस जमाने में हाइगा रंग - ब्रुश से बनाया जाता था | * फ़िलहाल [[कविता कोश के मानक|कविता कोश में रचनाओं को जोडे जाने के संबंध में अपनाये जा रहे मानकों]] के अनुरूप इस कोश में चित्रात्मक रचनाओं (जैसे कि [[कविता कोश के मानक| हाइगा]] या चित्र पर लिखे शे’र और ग़ज़ल) इत्यादि का संकलन नहीं किया जा रहा है।ॠता शेखर 'मधु' ने 2013 में प्रथम हाइगा-संग्रह सम्पादित किया।
==पुस्तकें / शोध- कार्य ==
* ''हाइकु-१९८९1989'' और ''हाइकु-१९९९1999'' के बाद [[कमलेश भट्ट 'कमल' ]] द्वारा संपादित हाइकु का तीसरा संकलन '"[[हाइकु / कमलेश भट्ट 'कमल'|मे हाइकु-2009]]'" है।इसी क्रम में , चन्दनमन [[ रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु']] और [[ भावना कुँअर]] तथा यादों के पाखी [[ रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु']] ,[[ भावना कुँअर ]] और [[ हरदीप सन्धु]] सम्पादित संकलन हैं ।एकल संकलन में, 1 खुशबू का सफ़र, 1986,2 – लकड़ी का सपना, 9 जनवरी-1989,3- तरु देवता, पाखी पुरोहित, 25 अगस्त-1997,4 – कूकी जो पिकी, अगस्त-2000,5 – चाँदी के अरघे में , नवम्बर-2000, 6- धूप से गपशप, 2002,7– बाबुना जो आएगी, मार्च,2004,8- आ बैठी गीत- परी, मार्च,2004,9- अकेला था समय, मार्च,2004,10- चुलबुली रात में, अप्रैल , 2006,11- पानी माँगता देश(सेन्र्यू-सन्ग्रह ), अप्रैल-2006,12- कोरी माटी के दीये-2009;13-खोई हरी टेकरी –जनवरी -2013 [[ सुधा गुप्ता]],तारों की चूनर ,धूप के खरगोश, [[भावना कुँअर]],अमलतास [[ कमलेश भट्ट 'कमल']], मेरे सात जनम,माटी की नाव [[ रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु']], ख्वाबों की खुशबू [[ हरदीप कौर सन्धु ]], भोर की मुस्कान [[ रचना श्रीवास्तव]],चाँदी की सीपियाँ [[अनिता ललित]],ओस नहाई भोर [[ज्योत्स्ना शर्मा]] प्रमुख हैं ।
* मूलतः इस जापानी साहित्य की विधा हाइकु पर '''करुणेश भट्ट''' ने लखनऊ विश्वविद्यालय में शोध कार्य भी किया है। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से 'मेरे सात जनम' [[ रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ]] पर राजेश ढल ने एम फिल की है । ''''डॉ सुधा गुप्ता के हाइकु में प्रकृति'(रागात्मक मनोभूमि:संचरण व संचयन)शोध ग्रन्थ''',[[ रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ]] और [[भावना कुँअर]] एवं '''हाइकु काव्य: शिल्प एवं अनुभूति'''-सम्पादक [[ रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ]] और [[भावना कुँअर]] प्रमुख ग्रन्थ हैं।