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|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
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<poem>
'''पंचदश सर्ग: सगपावस
'''
बीता पर्वत पर
नीलम घासें लहराई।
कासों की श्वेत ध्वजाएँ
किसने आकर फहराई?॥1॥
<font size=4>पंचदश सर्ग: सगपावस</font><br><br>नव पारिजात–कलिका का मारूत आलिंगन करता कम्पित–तन मुसकाती है वह सुरभि–प्यार ले बहता॥2॥
बीता पर्वत पर <Br/>नीलम घासें लहराई। <Br/>कासों की श्वेत ध्वजाएं <Br/>किसने आकर फहराई?।।1।। <Br/><Br/>नव पारिजात–कलिका का <Br/>मारूत आलिंगन करता <Br/>कम्पित–तन मुसकाती है <Br/>वह सुरभि–प्यार ले बहता।।2।। <Br/><Br/>कर स्नान नियति–रमणी ने¸ <Br/>नव हरित वसन है पहना। <Br/>किससे मिलने को तन में <Br/>झिलमिल तारों का गहना।।3।। <Br/><Br/>गहना॥3॥ पर्वत पर¸ अवनीतल पर¸ <Br/>तरू–तरू के नीलम दल पर¸ <Br/>यह किसका बिछा रजत–तट <Br/>सागर के वक्ष:स्थल पर।।4।। <Br/><Br/>पर॥4॥ वह किसका हृदय निकलकर <Br/>नीरव नभ पर मुसकाता? <Br/>वह कौन सुधा वसुधा पर <Br/>रिमझिम–रिमझिम बरसाता।।5।। <Br/><Br/>बरसाता॥5॥ तारक मोती का गजरा <Br/>है कौन उसे पहनाता? <Br/>नभ के सुकुमार हृदय पर <Br/>वह किसको कौन रिझाता ।।6।। <Br/><Br/>॥6॥ पूजा के लिए किसी की <Br/>क्या नभ–सर कमल खिलाता? <Br/>गुदगुदा सती रजनी को <Br/>वह कौन छली इतराता।।7।। <Br/><Br/>इतराता॥7॥ वह झूम–झूमकर किसको <Br/>नव नीरव–गान सुनाता? <Br/>क्या शशि तारक मोती से <Br/>नभ नीलम–थाल सजाता।।8।। <Br/><Br/>सजाता॥8॥ जब से शशि को पहरे पर <Br/>दिनकर सो गया जगाकर¸ <Br/>कविता–सी कौन छिपी है <Br/>यह ओढ़ रूपहली चादर।।9।। <Br/><Br/>चादर॥9॥ क्या चांदी की डोरी से <Br/>वह नाप रहा है दूरी? <Br/>या शेष जगह भू–नभ की <Br/>करता ज्योत्स्ना से पूरी।।10।। <Br/><Br/>पूरी॥10॥ इस उजियाली में जिसमें <Br/>हंसता हँसता है कलित–कलाधर। <Br/>है कौन खोजता किसको <Br/>जुगनू के दीप जलाकर।।11।। <Br/><Br/>जलाकर॥11॥ लहरों से मृदु अधरों का <Br/>विधु झुक–झुक करता चुम्बन। <Br/>धुल कोई के प्राणों में <Br/>वह बना रहा जग निधुवन।।12।। <Br/><Br/>निधुवन॥12॥ घूंघट–पट खोल शशी से <Br/>हंसती हँसती है कुमुद–किशोरी। <Br/>छवि देख देख बलि जाती <Br/>बेसुध अनिमेष चकोरी।।13।। <Br/><Br/>चकोरी॥13॥ इन दूबों के टुनगों पर <Br/>किसने मोती बिखराये? <Br/>या तारे नील–गगन से <Br/>स्वच्छन्द विचरने आये।।14।। <Br/><Br/>आये॥14॥ या बंधी बँधी हुई हैं अरि की <Br/>जिसके कर में हथकड़ियां¸ <Br/>उस पराधीन जननी की <Br/>बिखरी आंसू आँसू की लड़ियां।।15।। <Br/><Br/>लड़ियां॥15॥ इस स्मृति से ही राणा के <Br/>उर की कलियां मुरझाई। <Br/>मेवाड़–भूमि को देखा¸ <Br/>उसकी आंखें आँखें भर आई।।16।। <Br/><Br/>आई॥16॥ अब समझा साधु सुधाकर <Br/>कर से सहला–सहलाकर। <Br/>दुर्दिन में मिटा रहा है <Br/>उर–ताप सुधा बरसाकर।।17।। <Br/><Br/>बरसाकर॥17॥ जननी–रक्षा–हित जितने <Br/>मेरे रणधीर मरे हैं¸ <Br/>वे ही विस्तृत अम्बर पर <Br/>तारों के मिस बिखरे हैं।।18।। <Br/><Br/>हैं॥18॥ मानव–गौरव–हित मैंने <Br/>उन्मत्त लड़ाई छेड़ी। <Br/>अब पड़ी हुई है मां माँ के <Br/>पैरों में अरि की बेड़ी।।19।। <Br/><Br/>बेड़ी॥19॥ पर हां¸ हाँ¸ जब तक हाथों में <Br/>मेरी तलवर बनी है¸ <Br/>सीने में घुस जाने को <Br/>भाले की तीव्र अनी है।।20।। <Br/><Br/>है॥20॥ जब तक नस में शोणित है <Br/>श्वासों का ताना–बाना¸ <Br/>तब तक अरि–दीप बुझाना <Br/>है बन–बनकर परवाना।।21।। <Br/><Br/>परवाना॥21॥ घासों की रूखी रोटी¸ <Br/>जब तक सोत का पानी। <Br/>तब तक जननी–हित होगी <Br/>कुबार्नी पर कुबार्नी।।22।। <Br/><Br/>कुबार्नी॥22॥ राणा ने विधु तारों को <Br/>अपना प्रण–गान सुनाया। <Br/>उसके उस गान वचन को <Br/>गिरि–कण–कण ने दुहराया।।23।। <Br/><Br/>दुहराया॥23॥ इतने में अचल–गुहा से <Br/>शिशु–क्रन्दन की ध्वनि आई? <Br/>कन्या के क्रन्दन में थी <Br/>करूणा की व्यथा समाई।।24।। <Br/><Br/>समाई॥24॥ उसमें कारागृह से थी <Br/>जननी की अचिर रिहाई। <Br/>या उसमें थी राणा से <Br/>मां माँ की चिर छिपी जुदाई।।25।। <Br/><Br/>जुदाई॥25॥ भालों से¸ तलवारों से¸ <Br/>तीरों की बौछारों से¸ <Br/>जिसका न हृदय चंचल था <Br/>वैरी–दल ललकारा से।।26।। <Br/><Br/>से॥26॥ दो दिन पर मिलती रोटी <Br/>वह भी तृण की घासों की¸ <Br/>कंकड़–पत्थर की शय्या¸ <Br/>परवाह न आवासों की।।27।। <Br/><Br/>की॥27॥ लाशों पर लाशें देखीं¸ <Br/>घायल कराहते देखे। <Br/>अपनी आंखों आँखों से अरि को <Br/>निज दुर्ग ढाहते देखे।।28।। <Br/><Br/>देखे॥28॥ तो भी उस वीर–व्रती का <Br/>था अचल हिमालय–सा मन। <Br/>पर हिम–सा पिघल गया वह <Br/>सुनकर कन्या का क्रन्दन।।29।। <Br/><Br/>क्रन्दन॥29॥ आंसू आँसू की पावन गंगा <Br/>आंखों आँखों से झर–झर निकली। <Br/>नयनों के पथ से पीड़ा <Br/>सरिता–सी बहकर निकली।।30।। <Br/><Br/>निकली॥30॥ भूखे–प्यासे–कुम्हालाये <Br/>शिशु को गोदी में लेकर। <Br/>पूछा¸ ्"तुम क्यों रोती हो <Br/>करूणा को करूणा देकर्"।।31।। <Br/><Br/>॥31॥ अपनी तुतली भाषा में <Br/>वह सिसक–सिसककर बोली¸ <Br/>जलती थी भूख तृषा की <Br/>उसके अन्तर में होली।।32।। <Br/><Br/>होली॥32॥ ्'हा छही न जाती मुझछे <Br/>अब आज भूख की ज्वाला। <Br/>कल छे ही प्याछ लगी है <Br/>हो लहा हिदय मतवाला।।33।। <Br/><Br/>मतवाला॥33॥ मां माँ ने घाछों की लोती <Br/>मुझको दी थी खाने को¸ <Br/>छोते का पानी देकल <Br/>वह बोली भग जाने को।।34।। <Br/><Br/>को॥34॥ अम्मा छे दूल यहीं पल <Br/>छूकी लोती खाती थी। <Br/>जो पहले छुना चुकी हूं¸ <Br/>हूँ¸ वह देछ–गीत गाती थी।।35।। <Br/><Br/>थी॥35॥ छच कहती केवल मैंने <Br/>एकाध कवल खाया था। <Br/>तब तक बिलाव ले भागा <Br/>जो इछी लिए आया था।।36।। <Br/><Br/>था॥36॥ छुनती हूं हूँ तू लाजा है <Br/>मैं प्याली छौनी तेली। <Br/>क्या दया न तुझको आती <Br/>यह दछा देखकल मेली।।37।। <Br/><Br/>मेली॥37॥ लोती थी तो देता था¸ <Br/>खाने को मुझे मिठाई। <Br/>अब खाने को लोती तो <Br/>आती क्यों तुझे लुलाई।।38।। <Br/><Br/>लुलाई॥38॥ वह कौन छत्रु है जिछने <Br/>छेना का नाछ किया है? <Br/>तुझको¸ मां माँ को¸ हंम हम छभको¸ <Br/>जिछने बनबाछ दिया है।।39।। <Br/><Br/>है॥39॥ यक छोती छी पैनी छी <Br/>तलवाल मुझे भी दे दे। <Br/>मैं उछको माल भगाऊं <Br/>भगाऊँ छन मुझको लन कलने दे।।40।। <Br/><Br/>दे॥40॥ कन्या की बातें सुनकर <Br/>रो पड़ी अचानक रानी। <Br/>राणा की आंखों आँखों से भी <Br/>अविरल बहता था पानी।।41।। <Br/><Br/>पानी॥41॥ उस निर्जन में बच्चों ने <Br/>मां–मां माँ–माँ कह–कहकर रोया। <Br/>लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर <Br/>धीरज ने धीरज खोया।।42।। <Br/><Br/>खोया॥42॥ वह स्वतन्त्रता कैसी है <Br/>वह कैसी है आजादी। <Br/>जिसके पद पर बच्चों ने <Br/>अपनी मुक्ता बिखरा दी।।43।। <Br/><Br/>दी॥43॥ सहने की सीमा होती <Br/>सह सका न पीड़ा अन्तर। <Br/>हा¸ सiन्ध–पत्र लिखने को <Br/>वह बैठ गया आसन पर।।44।। <Br/><Br/>पर॥44॥ कह ्'सावधान्' रानी ने <Br/>राणा का थाम लिया कर। <Br/>बोली अधीर पति से वह <Br/>कागद मसिपात्र छिपाकर।।45।। <Br/><Br/>छिपाकर॥45॥ ्"तू भारत का गौरव है¸ <Br/>तू जननी–सेवा–रत है। <Br/>सच कोई मुझसे पूछे <Br/>तो तू ही तू भारत है।।46।। <Br/><Br/>है॥46॥ तू प्राण सनातन का है <Br/>मानवता का जीवन है। <Br/>तू सतियों का अंचल है <Br/>तू पावनता का धन है।।47।। <Br/><Br/>है॥47॥ यदि तू ही कायर बनकर <Br/>वैरी सiन्ध करेगा। <Br/>तो कौन भला भारत का <Br/>बोझा माथे पर लेगा।।48।। <Br/><Br/>लेगा॥48॥ लुट गये लाल गोदी के <Br/>तेरे अनुगामी होकर। <Br/>कितनी विधवाएं रोतीं <Br/>अपने प्रियतम को खोकर।।49।। <Br/><Br/>खोकर॥49॥ आज़ादी का लालच दे <Br/>झाला का प्रान लिया है। <Br/>चेतक–सा वाजि गंवाकर <Br/>पूरा अरमान किया है।।50।। <Br/><Br/>है॥50॥ तू सiन्ध–पत्र सन्धि–पत्र लिखने का <Br/>कह कितना है अधिकारी? <Br/>जब बन्दी मां माँ के दृग से <Br/>अब तक आंसू आँसू है जारी।।51।। <Br/><Br/>जारी॥51॥ थक गया समर से तो तब¸ <Br/>रक्षा का भार मुझे दे। <Br/>मैं चण्डी–सी बन जाऊं <Br/>अपनी तलवार मुझे दे।्दे।"।।52।। <Br/><Br/>॥52॥ मधुमय कटु बातें सुनकर <Br/>देखा ऊपर अकुलाकर¸ <Br/>कायरता पर हंसता हँसता था <Br/>तारों के साथ निशाकर।।53।। <Br/><Br/>निशाकर॥53॥ झाला सम्मुख मुसकाता <Br/>चेतक धिक्कार रहा है। <Br/>असि चाह रही कन्या भी <Br/>तू आंसू आँसू ढार रहा है।।54।। <Br/><Br/>है॥54॥ मर मिटे वीर जितने थे¸ <Br/>वे एक–एक कर आते। <Br/>रानी की जय–जय करते¸ <Br/>उससे हैं आंख चुराते।।55।। <Br/><Br/>आँख चुराते॥55॥ हो उठा विकल उर–नभ का <Br/>हट गया मोह–धन काला। <Br/>देखा वह ही रानी है <Br/>वह ही अपनी तृण–शाला।।56।। <Br/><Br/>तृण–शाला॥56॥ बोला वह अपने कर में <Br/>रमणी कर थाम ्"क्षमा कर¸ <Br/>हो गया निहाल जगत में¸ <Br/>मैं तुम सी रानी पाकर।्पाकर।"।।57।। <Br/><Br/>॥57॥ इतने में वैरी–सेना ने <Br/>राणा को घ्ोर घेर लिया आकर। <Br/>पर्वत पर हाहाकार मचा <Br/>तलवारें झनकी बल खाकर।।58।। <Br/><Br/>खाकर॥58॥ तब तक आये रणधीर भील <Br/>अपने कर में हथियार लिये। <Br/>पा उनकी मदद छिपा राणा <Br/>अपना भूखा परिवार लिये।।59।। <Br/>लिये॥59॥ <Br/poem>