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हाथों के दिन आएँगे / त्रिलोचन

No change in size, 15:59, 2 अप्रैल 2008
[[Category:सॉनेट]]
एक विरोधाभास त्रिलोचन है. मै उसकाहाथों के दिन आयेंगे, कब आयेंगे,<br>रंग-ढंग देखता रहा हूँ. बात कुछ नईयह तो कोई नहीं बताता, करने वाले<br>नहीं मिली है.घोर निराशा में जहाँ कहीं भी मुसकादेखा अब तक डरने वाले<br>मिलते हैं। सुख की रोटी कब खायेंगे,<br>सुख से कब सोयेंगे, उस को कब पायेंगे,<br>जिसको पाने की इच्छा है, हरने वाले,<br>हर हर कर बोलाअपना-अपना घर भरने वाले, कुछ बात <br>कहाँ नहीं है अभी तो कईहैं। हाथ कहाँ से क्या लायेंगे।<br><br>
और तमाशे मैं देखुँगा. मेरी छातीहाथ कहाँ हैं,वंचक हाथों के चक्के में<br>वज्र की बनी हैबंधक हैं, प्रहार हो, फिर प्रहार होबँधुए कहलाते हैं,धरती है<br>बस न कहूँगा. अधीरता है मुझे न' भातीनिर्मम,पेट पले कैसे इस उस मुखड़े<br>दुख की चढी नदी का स्वाभाविक उतार हो.<br><br> संवत पर सवत बीते, वह कहीं न टिहटासुननी पड़ जाती है,धौंसौं के धक्के में<br>पाँवों कौन जिए।जिन साँसों में चक्कर था. द्रवित देखने वालेआया करती है<br>थे. परास्त हो यहाँ से हटा, वहाँ से हटाभाषा,किस को चिन्ता है उसके दुखड़ों की।<br>खुश थे जलते घर से हाथ सेंकने वाले.<br><br> औरों का दुख दर्द वह नहीं सह पाता है.<br>यथाशक्ति जितना बनता है कर जाता है.
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