भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
रोज़ के रोज़ बरगलाता है
नाम अपना ख़ुदा बताता है I
कौन उससे बड़ा फ़रेबी है ?बात बे-बात तिलमिलाता है I
आईना सामने न रखिएगा
ख़ौफ़ कोई , उसे सताता है I
आपकी चोट मेरे जैसी है ?ख़ैर...दोनों का एक दाता है I
जानता हूँ कि कुफ़्र बोलेगा
पर , बड़े प्यार से बुलाता है I
एक अच्छी ये बात है उसमें
भूलता है , तो भूल जाता है I
दिन-उजाले में हम तवायफ़ हैं
रात होते ही चला आता है I
वाह-वाही , हुआँ-हुआँ जैसीआपके कुछ समझ में आता है ?
एक पागल है ‘दीप’ कहता है
अर्श-वाला भी घूस खाता है I
</poem>