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|रचनाकार=नरेन्द्र देव वर्मा
|संग्रह=
}}
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<poem>
ये कैसा अंधेरा है, ये कैसा जमाना है,
कहने को तो जीते हैं, जीने का बहाना है।
लोहे की जहाँ बस्ती, लोहे के जहाँ इन्साँ,
शीशे का जिगर अपना अब उनसे बचाना है।
खामोश रहें कब तक जब आग भड़कती हो,
गुलशन का झुलसना तो कौमों तराना है।
हम लाख करें कोशिश पर आग नहीं बुझती,
बादल को बरसना क्या अब हमको सिखाना है।
कालिख के समन्दर में हम डूब चुके बिल्कुल,
अब सुबहे जवानी तो ख्वाबों का फसाना है।
तुम जुल्मोसितम ढाओ, बरपा दो कहर हम पर,
अब कलियों के सीने में शोलों को उगाना है।
सूरज को दबोचे जो बैठे हैं मकानों में,
बन्दूकों के साये से सूरज को छुड़ाना है।
</poem>
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|संग्रह=
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ये कैसा अंधेरा है, ये कैसा जमाना है,
कहने को तो जीते हैं, जीने का बहाना है।
लोहे की जहाँ बस्ती, लोहे के जहाँ इन्साँ,
शीशे का जिगर अपना अब उनसे बचाना है।
खामोश रहें कब तक जब आग भड़कती हो,
गुलशन का झुलसना तो कौमों तराना है।
हम लाख करें कोशिश पर आग नहीं बुझती,
बादल को बरसना क्या अब हमको सिखाना है।
कालिख के समन्दर में हम डूब चुके बिल्कुल,
अब सुबहे जवानी तो ख्वाबों का फसाना है।
तुम जुल्मोसितम ढाओ, बरपा दो कहर हम पर,
अब कलियों के सीने में शोलों को उगाना है।
सूरज को दबोचे जो बैठे हैं मकानों में,
बन्दूकों के साये से सूरज को छुड़ाना है।
</poem>