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पीपर छांव तरी / चेतन भारती

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पीपर के बिहनिया अऊ संझा,
चलव तो अइसन काज करी ।
सुरता कर गांव में उपजन बाढ़न,
सुम्मत बगरा पीपर छांव तरी ।।

अँचरा लमा के दाइ, जउन पोंछिस आंसू,
देखके तोला अपन पीरा लुकाइस ।
पहिर के जुन्हा ओहा दरद ओढ़के,
छुटपन के किलकारी तोला लुटाइस ।।
मढ़ा तो पाँव सुरता करत गाँव,
बगरा दे रद्दा भर सुख के लरी ।।

परबुधिया बने करनी करे झांझ में,
झोलावत हावे बाबू देख गंवई खोर ।
झरखपन पेलत हे स्वारथ के आंधी,
उझरत हावे सपनाये कांड़ कोरई मोर ।।
चेत करले पुरखा पहिरे हे चिरहा कुरता,
मार झन फुटानी, बांचो हे गनती करी ....

कोड़त-कोड़त कनिहा लचकगे,
उड़ाके लेगे बड़ोरा छाये छानी कुरिया ।
ढरकत हावे आंसू आके कोन पोंछे,
कोन्हा म दबके हावे पुनिया ।।
चमकत शहर छोड़ करले पुरखा के सुरता,
देख सिसकत हे महतारी, अंधियार तरी....
</poem>
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