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खण्ड-10 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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धरती की लिख ! स्वर्गलोक की क्या कविता है लिखता
अगर नहीं होगी यह धरती, होगा स्वर्ग कहाँ पर
स्वर्ण-सौध क्या टिका रहेगा, वह जो खड़ा धुआँ पर ?
जो प्रत्यक्ष है, उसका तो विश्वास नहीं है नर को
खोज रहा है शून्य रंध में मणि-माणिक के घर को
सत्कर्मो से, नर सेवा से, निखिल भुवन जगमग है
इसीलिए शायद मैं, तेरे जग से कटा हुआ हूँ
चैथी का मैं चाँद संभाले शिव से सटा हुआ हूँ ।हूँ।
‘‘बहुत ज्ञान की बातें सुन लीं, दर्शन सुना तुम्हारा
जन्मों की लड़ियाँ भी देखी मृत्यु-जन्म की माला
और सभी के बाद तुम्हारा एक वही विश्वास
वर्तमान का भूत सत्य है, सत्य वही जो पास ।’’पास।’’
‘‘तुमने जो कुछ कहा, झूठ क्या; लेकिन सत्य यही है
कह कर कितना पाप किया, और कितना पुण्य कमाया
इसका क्या हो लेखा-जोखा, सब कुछ छोड़ रहा हूँ
जहाँ कभी न गया, उधर ही खुद को मोड़ रहा हूँ ।हूँ।
‘‘फिर मत इसका अर्थ बनाना, मति को जो भरमाए
कत्र्तव्यों पर नाच रहा है पूंजी का करतब
खेतों में लोहे के दाने, सरसों का रंग काला
कातिक-अगहन की काया पर पूस-माघ का पाला ।पाला।
‘‘कोई यहाँ फरारी देखा, कोई और लुटेरा
रात घनी कुछ हो जाती है जब सूरज जगता है
लेकिन शांति उतरती कब है चंचल-सा इस मन में
कितने-कितने तर्क उड़ा करते हैं नीलगगन में ।में।
‘‘द्विभुज नीति-विनाशक सम्मुख, क्यों लाचार चतुर्भुज
कल तक जिसके साथ रहा था, छूट रहा वह मेला
लेकिन मैं भयभीत नहीं हूँ, अभी मित्रा कुछ बाकी
लौटाना तो होगा मुझको थाथी सभी धरा की ।की।
‘‘सच कहते हो मैं झुक जाता, देवमूर्ति के आगे
मैं क्या हूँ, क्या मेरे मन में, सभी भावों को त्यागे
और कभी औरों के सुख की खातिर ही झुक जाता
तुम्हीं कहो, ऐसा करने में मेरा क्या मिट जाता ?
औरों को सुख मिले, खुशी हो, मेरे मन की साध
नहीं चाहता जीना जग में बनकर बधिक या व्याध
मेरे लिए यही से झरता शीतल अमृत झरझर
जीवन मेरा ही विनोद है, गंगा का मैं मन हूँ
सच कहता हूँ, क्षिति, जल, पावक, मारुत, नील गगन हूँ ।हूँ।"
</poem>
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