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मृगतृष्णा / डी. एम. मिश्र

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गाँव के तालाब से निकलकर
एक छोटी मछली मृगतृष्णा में खिंची
बड़े समुद्र में आ गयी
उसे बताया गया था
समुद्र का दिल बहुत बड़ा है
बड़ी गहराई है
लंबा-चोड़ा विस्तार है
खूब घूमो-फिरो
सैर सपाटे करो
पानी कभी चुकता नहीं
समुद्र कभी सूखता नहीं
पर, यहाँ तो गले पड़ गया
खैालता हुआ समुद्र
जहाँ लहरें कम और लपटें ज्यादा हैं
सिर पर हर समय ख़तरा मँडरा रहा है
बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को
जिन्दा निगल जा रहीं है
बड़े- बड़े बोट और जंगी जहाज
पानी का सीना फाड़ते हुए
इधर से उधर बेपरवाह निकल रहे हैं
पर, कहीं से विरोध का स्वर नहीं फूटता
 
सब खौफजदा हैं और अपनी मौत पर
हस्ताक्षर करके चुप हैं
सब जानते हैं संवेदनाओं का सोता
यहाँ कब का सूख चुका है
समुद्र का नाम है वह भी खारा
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