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<poem>
कोई बंधन हो छूट जाता है
आदमी विष भी घूट जाता है।
जिसकी औलाद दग़ा देती है
वो बुढ़ापे में टूट जाता है।
 
देर लगती ज़रूर है लेकिन
पाप का घट हो फूट जाता है।
 
उस अदालत से कौन बच पाता
इस अदालत से छूट जाता है।
 
जिस में इन्सानियत नहीं होती
उससे अल्लाह भी रूठ जाता है।
 
वो कभी फिर से जुड़ नहीं पाता
काँच का घर जो टूट जाता है।
</poem>
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