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<poem>
जे दिन भेद के खाई पटिहय, तब सदधर्म के वास्तव राज
ईश्वर घलो प्रसन्न हृदय तक, जब सब खाहंय बांट बिराज।”
“महिला पुरूष रात दिन सुख दुख, प्रकृति हा बनाय खुद भेद
तब फिर कहां ले मूंदन सकिहय – कंगला पूंजीपति के छेद?”
“प्रकृति के तंय गोठ करत हस, प्रकृति कहां करत हे भेद!
हवा प्रकाश अनाज खनिज ला, सब के हित बर रखे सहेज।
पर कुछ बुद्धिमान स्वार्थी मन, पर के जिनिस ला करत लूट
अपन बनत पूंजीपति सक्षम, याने समाज के सिरमौर।
वाद विचार कला अन जन धन, राजनीति साहित्य विज्ञान
जतिक प्रचार तंत्र सब ताकत, मानत सक्षम के आदेश।
तब सक्षम हा स्वार्थ पूर्ति बर, अउ वर्चस्व सुरक्षित होय
ऊंच नीच पूंजीपति कंगला, भेद के तर्क ला फइला देत।
तब हम ओकर पाछू दउड़त, अपन बुद्धि ला निष्क्रिय राख
अपन जिन्दगी गर्त मं डारत, भावी बर भविष्य अंधियार।
यदि हम सबो यत्न करबो तब, “सुम्मत राज” ला सकथन लान
वर्ग समाज मं होवय हाजिर, तभो ले सम्भव वर्ग विहीन।
हवा – प्राण नइ दिखय आंख मं, मगर उंकर निश्चय अस्तित्व
ऊपर दिखिहय वर्ग बद्धता, राज ला करिहय वर्ग विहीन।
एक राष्ट्र मं देख सकत तंय, उहां समानता के साम्राज्य
उच्च – निम्न श्रेणी के खाई, मगर भेद मिटिहय कल ज्वार।”
रखिस गरीबा तर्क बहुत ठक, मगर भुखू हा दीस उखेल
परय तुतारी डायल धन ला, पर ओकर पर कहां प्रभाव?
इही बीच चिंता हा पहुंचिस, जेहर बसत करेला गांव
हाथ मिलैस गरीबा के संग, आगू डहर बढ़ावत गोठ –
“पथरा पर जल – खातू छिचबे, पर उबजन नइ पाय अनाज
तइसे भुखू ला तंय समझाबे, पर ओकर बर हे बेकार।
अपन बुद्धि ला खर्चा झन कर, मोर बात ला पहिली मान
तोर शब्द के इज्जत होवय, अपन तर्क ला उंहचे राख।”
कथय गरीबा हा मुसकावत – “एकर अर्थ जान मंय लेंव
मोर पास हे तोर काम कुछ, हां, अब बता – काय हे काम?
चिंता बोलिस – “झन टकराबे, तंय चल हमर करेला गांव
सांवत – भांवत दुनों लड़त हें, एक दुसर के देखत दांव।
यथा महाभारत झगरा हा, वास्तव मं पारिवारिक युद्ध
मगर राष्ट्र हा चरपट होगिस, उन्नति मार्ग तुरूत अवरूद्ध।
तइसे दूनों भाई झगरत, झंझट उंकर गांव पर गीस
ग्रामीण मन मं फूट परे अउ, क्रोध देखात दांत ला पीस।
बीच बचाव अगर नइ होहय, गांव हा बनही मरघट घाट
मोर साथ तंय हा चल झपकुन, बचा गांव ला कर के न्याय।”
चलिस गरीबा हा चिंता संग, गांव के बाहर दिखिस तलाब
चिंता कथय -”पार कर एकर, मंय हा दुहूं इनाम निकाल।”
कथय गरीबा – “डुबक लेत हंव, पर धनवा के बात कुछ और
मेहरु- सनम घलो तउरत पर, धनवा हा उंकरो सिरमौर।
एक बार हम सब हुम्मसिहा, आएन इहां करे इसनान
एक दुसर ला एल्हत हांसत, डुबक डुबक लग गेन नहान।
तब मेहरुहा चंग चढ़ा दिस – “तुम्मन सुन लव लटका मोर-
जे तरिया ला प्रथम नहकिहय, पाहय उहिच इनाम सजोर।”
सब जवान तउरत ताकत कर, धनवा तरकत सांस ला खींच
सक ले अधिक जोर मारिस तंह, पहुंच गीस तरिया के बीच।
धनवा के पाछू मंय तउरत, पर नइ पावत ओकर पार
मंय बोलेंव – “अगोर ले थोरिक, मोला करन दे पहिली पार।
यदि मंय बाजी हार जात हंव, मोला हंसिहंय जमों मितान
जिते इनाम तोर मन होवत, ओकर पूर्ति ला करहूँ लान।”
लेकिन धनवा काबर मानय, बढ़ सर्राटा कर लिस पार
ओहर स्पर्धा जीतिस अउ, हमर गला मं हार के हार।”
चिंता कथय -”समझ नइ आवत, धनवा – तोर चलत हे द्वन्द
ओकर करतेस मरत खलिन्द्री, लेकिन लिखत प्रशंसा छंद।”
किहिस गरीबा – “हे धनवा हा, ठंउका मं तारीफ के लैक
ओहर रथय नशा ले दुरिहा, अउ चरित्र हा दगदग साफ।
ओकर – मोर शत्रुता कुछ नइ, ओकर बर मन फरिहर – शुद्ध
पर धनवा हा शोषण करथय, तब होथय सैद्धान्तिक युद्ध।”
बोल गरीबा हा चुप हो गिस, पहुंचिस जहां करेला गांव
यद्यपि सांवत घर जाना हे, पर चल दिस दसरुके छांव।
होत गरीबा के विचार हा दसरुला झुझकाना।
बसदेवा मन गाथंय तिसने गात गरीबा गाना।

“छेरी के पुछी भठेलिया के कान
बुढ़ुवा बैला ला दे – दे दान।
जय गंगा।
तंय दसरू के बेटा आस
मंय सुद्धू के बेटा आंव।
जय गंगा।
निश्छल हिरदे दुनों मितान
तइसे हम तुम एक परान।
जय गंगा।
तंय हा बसत करेला गाँव
नाम करू पर मीठ सुवाद।
जय गंगा।
तोर पास मंय आय मितान
मोर खाय बर बासी लान
जय गंगा।
ओमां अमसुर मही ला डार
चिखना बर चटनी ला लान।
जय गंगा।
भरे पुरे हे घर हा तोर
झन मर एको कनिक कनौर।
जय गंगा।
कोठी भर भराय हे धान
Ïक्वटल एक हेर के लान।
जय गंगा।
पर मंय जानत तंय कंजूस
अगर गलत सब झन ला पूछ।
जय गंगा।
यदि तंय हा नइ करबे दान
छिन के लेग जबो सब धान।
जय गंगा।
</poem>
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