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<poem>
धरती के सेवा करव रे जिये के रद्दा बताही।
चिखला ले झन डरौ रे, जिनगी म सुख के दिन आही।

एके झन के नोहे एहा सब झन के ए माता,
दुख पीरा के हरवइया अउ सुख सुविधा के दाता।
आओ श्रध्‍दा से पूजा करके टेको सब माथा,
एकर ले बढ़के नइये कोई दूसर के गाथा।

जीयत म सब्‍बो तरो रे इही ह जस ला बढ़ाही।
धरती के सेवा करव रे जिये के रद्दा बताही।

इही माता दे हमला अन्‍न खनिज अउ पानी,
एकर किरपा ले बन जाथय, गुनी धनी ज्ञानी।
भेदभाव के डांड़ खिंचे नइ कंगलिन महारानी,
हमला सउंपे हे गा भइया, जगत के सियानी।

संसो ला एक हरो रे, संसो ला हमर भगाही।
चिखला ले झन डरव रे जिनगी मं सुख के दिन आही।

बइला अस धन ला पोंसो अउ राखव कंधा नांगर,
खाये बर पेट भरहा मिलही, ठेठरी, खुरमी गांकर।
पेट भरहा खाबो त मन हर्षित होही आगर,
जब मन हा आगर होही तब जीत लेबो सागर।

भुंइया के चिंता चिरो रे, चटनी बासी मिल जाही,
धरती के सेवा करव रे जिये के रद्दा बताही।

छोड़ फुटानी गप्‍प गोठ ला, चलो डोली जाबो,
तरतर चुहे चाहे पसीना तभो ले कमाबो।
धरती के दुश्‍मन के संग पंजा ला जमाबो,
उत्‍तम उदिम करबो तब हम उत्‍तम फसल पाबो।

माता के पंइया परव रे, अन धन हा दउड़त आही।
चिखला ले झन डरव रे जिनगी मं सुख के दिन आही।
</poem>
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