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बिहारी सतसई / भाग 1 / बिहारी

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राधा पद बाधा-हरन साधा कर रसलीन।
अंग अगाधा लखन को कीन्हों मुकुर नवीन॥
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सीस-मुकुट कटि-काछनी कर-मुरली उर-माल।
इहिं बानक मो मन बसो सदा बिहारीलाल॥2॥
सिर पर (मोर) मुकुट, कमर में (पीताम्बर की) काछनी, हाथ में मुरली और हृदय पर (मोती की) माला - हे बिहारीलाल, इस बाने से - इस सजधज से - मेरे मन में सदा वास करो।
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मोहनि मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोइ।
बसति सुचित अंतर तऊ प्रतिबिम्बित जग होइ॥3॥
श्रीकृष्ण की मोहिनी मूर्त्ति की गति बड़ी अद्भुत देखी जाती है। वह (मूर्त्ति) रहती (तो) है स्वच्छ हृदय के भीतर, पर उसकी झलक दीख पड़ती है सारे संसार में!
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तजि तीरथ हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुराग।
जिहिं ब्रज-केलि निकुंज-मग पग-पग होत प्रयाग॥4॥
तीर्थों में भटकना छोड़कर उन श्रीकृष्ण और राधिका के शरीर की छटा से प्रेम करो, जिनकी ब्रज में की गई क्रीड़ाओं से कुंजों के रास्ते पग-पग में प्रयाग बन जाते हैं - प्रयाग के समान पवित्र और पुण्यदायक हो जाते हैं।
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सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभि समीर।
मनु ह्वै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर॥5॥
जहाँ की कुंजे घनी हैं, छाया सुख देने वाली है, पवन शीतल और सुगंधित है, उस यमुना के तीर पर जाते ही आज भी मन वैसा ही हो जाता है-कृष्ण-प्रेम में उसी प्रकार मग्न हो जाता है।
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सखि सोहति गोपाल कैं उर गुंजन की माल।
बाहिर लसति मनौ पिए दावानल की ज्वाल॥6॥
हे सखी! श्रीकृष्ण की छाती पर (लाल-लाल) गुंजाओं की माला शोभती है। (वह ऐसी जान पड़ती है) मानो पिये हुए दावानल की ज्वाला बाहर शोभा दे रही हो - श्रीकृष्ण जिस दावाग्नि को पी गये थे, उसी की लाल लपटें बाहर फूट निकली हों।
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जहाँ जहाँ ठाढ़ौ लख्यौ स्यामु सुभग सिरमौरु।
बिनहूँ उनु छिन गहि रहतु दृगनु अजौं वह ठौरु॥7॥
सुन्दरों के सिरताज श्यामसुन्दर को जहाँ-जहाँ मैंने खड़े हुए देखा था, उनके न रहने पर भी, आज भी वे स्थान आँखों को एक क्षण के लिए (बरबस) पकड़ लेते हैं - आँख वहाँ से नहीं हटतीं।
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चिरजीवौ जोरी जुरे क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ए बृषभानुजा वे हलधर के बीर॥8॥
नोट-इस छोटे से दोहे में उत्कृष्ट श्लेष लाकर कवि ने सचमुच कमाल किया है।
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नित प्रति एकत ही रहत बैस बरन मन एक।
चहियत जुगल किसोर लखि लोचन जुगल अनेक॥9॥
नोट-पद्माकर ने इस जुगल जोड़ी के परस्पर-दर्शन-प्रेम पर कहा है -
 
मनमोहन-तन-धन सघन रमनि-राधिका-मोर।
श्रीराधा-मुखचंद को गोकुलचंद-चकोर॥
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मोर-मुकुट की चन्द्रिकनु यौं राजत नँदनंद।
मनु सखि-सेखर की अकस किय सेखर सतचंद॥10॥
मोर-मुकुट की चन्द्रिकाओं से (श्रीकृष्ण) ऐसे शोभते हैं, मानों शिवजी की ईर्ष्या से उन्होंने अपने सिर पर अनेक चन्द्रमा धारण किये हों।
 
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