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|सारणी=कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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तमब्रवीत प्रीयमाणो महात्मा वरं तवेहाद्य ददामि भूय: ।<br>
तवैव नामा भवितायमग्नि : सृक्ङां चेमामनेकरुपां गृहाण ॥१६॥<br>
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अब तुम्हारे ही नाम से, यह अग्नि विद्या प्रसिद्ध हो,<br>
जो रत्नमाल देवत्व सिद्धि को विविध रूपा सिद्ध हो॥ [ १६ ] <br><br>
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::त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू ।<br>
::ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥<br>
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::निष्काम भाव से चयन करते वे ही, पाते शान्ति को,<br>
::जन्म मृत्यु विहीन होकर, शेष करते भ्रांति को॥ [ १७ ]<br><br>
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त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम् ।<br>
स मृत्यृपाशानृ पुरत: प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१८॥<br>
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तीन बार के अनुष्ठान से ही, जन्म मृत्यु के पाश से, <br>
रहित होकर स्वर्ग का पाते हैं सुख विश्वास से॥ [ १८ ]<br><br>
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::एष तेऽग्निर्नचिकेत: स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।<br>
::एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृष्णीष्व॥१९॥<br>
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::यह अग्नि विद्या अब तुम्हारे नाम से ही विज्ञ हो,<br>
::नचिकेता अब तुम तीसरा वर मांग लो दृढ़ प्रग्य हो॥ [ १९ ]<br><br>
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येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके ।<br>
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय : ॥२०॥<br>
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उपदिष्ट आपसे मर्म इसका, धर्मराज मैं जान लूँ<br>
तीनों वरों में तीसरा वर , आपसे मैं मांग लूँ॥ [ २० ]<br><br>
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::देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुवेज्ञेयमणुरेष धर्म : ।<br>
::अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥२१॥<br>
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::यद्यपि प्रतिज्ञ हूँ ऋणी हूँ, पर दूसरा वर मांग लो,<br>
::देवों से भी अविदित मर्म है, गूढ़ है, यह जान लो॥ [ २१ ] <br><br>
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देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यों यत्र सुविज्ञेममात्थ ।<br>
वक्ता चास्य त्वादृगन्यों न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥२२॥<br>
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मैं गूढ़ता से हार, वर कोई अन्य लूँ , यह कथन है ,<br>
इस वर के संम नहीं अन्य वर, कृपया कहें पुनि नमन है॥ [ २२ ]<br><br>
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::शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान् ।<br>
::भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥२३॥<br>
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::तुम आयु इच्छित भोगने की चाहना हो तो कहो,<br>
::सब सुलभ, दुर्लभ आत्म तत्व है, बस इसी को मत कहो॥ [ २३ ]<br><br>
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एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च ।<br>
महाभूभौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजं करोमि॥२४॥<br>
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इस विश्व के विश्वानि वैभव, दासवत, हो जायेंगे,<br>
इच्छित युगों तक जियो, भोगो शेष न हो पायेगे॥ [ २४ ]<br><br>
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::ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामांश्छन्दत: प्रार्थयस्व।<br>
::इमा रामा : सरथा : सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यै:।<br>
::आभिर्मत्प्रत्ताभि : परिचारयस्व् नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी ॥२५॥<br>
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::नचिकेता प्रिय विश्वानि वैभव, सब तुम्हारे ही लिए<br>
::पर मृत्यु बाद की आत्मा का मर्म मत पूछो प्रिये॥ [ २५ ]<br><br>
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श्वो भावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज: ।<br>
अपि सर्वम् जीवितमल्पेमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥२६॥<br>
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बहु प्रेय श्रेय सभी चुकेगे, क्षणिक इस संसार में,<br>
है शक्य कल होंगी नहीं, क्यों सार खोजूँ असार में॥ [ २६ ]<br><br>
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::न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा ।<br>
::जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीय: स एव॥२७॥<br>
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::शुभ दृष्टि से तो आपकी, धन आयु स्वयं यथेष्ट हैं, इस विषय<br>
::अब आत्म ज्ञान का तीसरा, वर ही मुझे तो श्रेष्ठ है॥ [ २७ ]<br><br>
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अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन् मर्त्यः व्कधःस्थः प्रजानन्।<br>
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानदीर्घे जीविते को रमेत ॥२८॥<br>
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सब जानते हैं, सुविज्ञ मानव, मरण धर्मा प्राण हैं,<br>
छोड़ आपको रमे इनमें, कौन ऐसा मूढ़ है,<br>
मृत्यु हीन हे धर्मराज ! ही आप दुर्लभ गूढ़ हैं॥ [ २८ ]<br><br>
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::यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।<br>
::योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥२९॥<br>
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