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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
चैत री बेरुत बिरखा में
म्हारी देही धूजै
ऊभा हो जावै अणीचींती रा रुंआड़ा
म्हूं किणीं मा रा सुपना
किणीं बैन रै हाथां री पिळास
किरसा रै छऊ मईना री किरस
म्हैं खेत में ऊभी
खळां में पड़ी हाड़ी री फसल।

</poem>
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