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{{KKRachna
|रचनाकार= आनंद कुमार द्विवेदी
}}
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<poem>
खुद-ब-खुद ही झूठ सच का ज्ञान होने दीजिए
वरना बेहतर है, मुझे नादान होने दीजिए
थक गया हूँ जिंदगी को शहर सा जीते हुए
गाँव को फिर से मेरी पहचान होने दीजिये
दो तिहाई से भी ज्यादा लोग भूखे हैं यहाँ
आप खुश रहिये उन्हें हलकान होने दीजिये
रात में हर रहनुमा की असलियत दिख जाएगी
शहर की सड़कें जरा सुनसान होने दीजिये
बैठकर दिल्ली में किस्मत मुल्क की जो लिख रहे
पहले उनको कम-अज़-कम इंसान होने दीजिए
उनके दंगे , इनके घपले, देश को महंगे पड़े
अन्ना- बाबा को भी अब भगवान होने दीजिये
कौन जाने आपको ‘आनंद’ अपना सा लगे
साथ आने दीजिये, पहचान होने दीजिये
</poem>
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|रचनाकार= आनंद कुमार द्विवेदी
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खुद-ब-खुद ही झूठ सच का ज्ञान होने दीजिए
वरना बेहतर है, मुझे नादान होने दीजिए
थक गया हूँ जिंदगी को शहर सा जीते हुए
गाँव को फिर से मेरी पहचान होने दीजिये
दो तिहाई से भी ज्यादा लोग भूखे हैं यहाँ
आप खुश रहिये उन्हें हलकान होने दीजिये
रात में हर रहनुमा की असलियत दिख जाएगी
शहर की सड़कें जरा सुनसान होने दीजिये
बैठकर दिल्ली में किस्मत मुल्क की जो लिख रहे
पहले उनको कम-अज़-कम इंसान होने दीजिए
उनके दंगे , इनके घपले, देश को महंगे पड़े
अन्ना- बाबा को भी अब भगवान होने दीजिये
कौन जाने आपको ‘आनंद’ अपना सा लगे
साथ आने दीजिये, पहचान होने दीजिये
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