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|रचनाकार=आनंद कुमार द्विवेदी
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|संग्रह=जरिबो पावक मांहि / आनंद कुमार द्विवेदी
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<poem>
तुम जब भी
जरा सा भी
अपनेपन से बोल देते हो
केवल मानवता के नाते,
मन...
उस दिन बहुत जिद करता है
सारी दुनिया में तुम्हारी तारीफ़ करने की
और
रोने की,
बहाने से करता है वह
दोनों काम
दोस्त तलाशता है
बातें करने के लिए
बहाने से तुम्हारी तारीफ़ करता है
एकांत तलाशता है
फूट फूट कर रोने के लिए
और बिना किसी बहाने के रोता है

नहीं जान पाया
कि कब इतना टूट गया
ये मन !
बावरा अब जरा सा भी
उम्मीद की आहट सुनते ही
कातर हो उठता है
जैसे मौन रूप से तैयार करने लगा हो खुद को
एक अगली सजा के लिए,
जानता हूँ
प्रेम जबरन नहीं होता किसी से
मगर हो जाय तो ये बैरी
जबरन मिटता भी तो नहीं,
अपने वश में तो न खोना है
न पाना
अपन को बस एक ही काम आता है
डबडबाई आँखों से मुस्कराना ...

सुनो !
किसी को इस कदर जीत लेने का हुनर
मुझे भी बताओ न कभी ...!

</poem>
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