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माता की सीख / सूरदास

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<poem>काहै कौं पर-घर छिनु-छिनु जाति ।जाति।घर मैं डाँटि देति सिख जननी, नाहिं न नैंकु डराति ॥डराति॥राधा-कान्ह कान्ह राधा ब्रज, ह्वै रह्यौ अतिहि लजाति ।लजाति।अब गोकुल को जैबौ छाँड़ौ, अपजस हू न अघाति ॥अघाति॥तू बृषभानु बड़े की बेटी, उनकैं जाति न पाँति ।पाँति।सूर सुता समुझावति जननी, सकुचति नहिं मुसुकाति ॥1॥ मुसुकाति॥1॥
खेलन कौं मैं जाउँ नहीं ?
और लरिकिनी घर घर खैलहिं,मोहीं कौं पै कहत तुहीं॥
उनकैं मातु पिता नहिं कोई, खेलत डोलतिं जहीं तहीं।
तोसी महतारी बहि जाइ न, मैं रैहौं तुमहीं बिनुहीं॥
कबहुँ मोकौं कछू लगावति , कबहूँ कहति जनि जाहु कही।
सूरदास बातैं अनखौहीं, नाहिं न मौ पै जातिं सही॥2॥
और लरिकिनी घर घर खैलहिं,मोहीं कौं पै कहत तुहीं ॥
 
उनकैं मातु पिता नहिं कोई, खेलत डोलतिं जहीं तहीं ।
 
तोसी महतारी बहि जाइ न, मैं रैहौं तुमहीं बिनुहीं ॥
 
कबहुँ मोकौं कछू लगावति , कबहूँ कहति जनि जाहु कही ।
 
सूरदास बातैं अनखौहीं, नाहिं न मौ पै जातिं सही ॥2॥
 
 
 
 
मनहीं मन रीझति महतारी ।
 
कहा भई जौ बाढ़ि तनक गई, अबहों तौ मेरी है बारी ॥
 
झूठें हीं यह बात उड़ी है, राधा-कान्ह कहत नर-नारी ।
 
रिस की बात सुता के मुख की, सुनत हँसति मनहीं मन भारी ॥
 
अब लौं नहीं कछू इहिं जान्यौ, खेलत देखि लगावें गारी ।
 
सूरदास जननी उर लावति, मुख चूमति पोंछति रिस टारी ॥3॥
 
 
 
 
सुता लए जननी समुझावति ।
 
संग बिटिनिअनि कैं मिलि खेलौ, स्याम-साथ सुनु-सुनि रिस पावति ।
 
जातें निंदा होइ आपनी,जातैं कुल कौं गारो आवति ।
 
सुनि लाड़लो कहति यह तोसैं, तोकों यातैं रिस करि धावति ॥
 
अब समुझी मैं बात सबनि की, झूठैं ही यह बात उड़ावति ।
 
सूरदास सूनि सुनि ये बातें, राधा मन अति हरष बढ़ावति ॥4॥
 
 
 
 
राधा बिनय करत मनहीं मन, सुनहू स्याम अंतर के जामी ।
मातुमनहीं मन रीझति महतारी।कहा भई जौ बाढ़ि तनक गई, अबहों तौ मेरी है बारी॥झूठें हीं यह बात उड़ी है, राधा-पिता कुलकान्ह कहत नर-कानिहिं मानतनारी।रिस की बात सुता के मुख की, सुनत हँसति मनहीं मन भारी॥अब लौं नहीं कछू इहिं जान्यौ, खेलत देखि लगावें गारी।सूरदास जननी उर लावति, तुमहिं न जानत हैं जग स्वामी ॥मुख चूमति पोंछति रिस टारी॥3॥
तुम्हरौ नाउ लेत सकुचत हैं, ऐसे ठौर रही हौं आनी ।
गुरु परिजन को कानि मानयोंसुता लए जननी समुझावति।संग बिटिनिअनि कैं मिलि खेलौ, बारंबार कही मुख बानी ॥स्याम-साथ सुनु-सुनि रिस पावति।जातें निंदा होइ आपनी,जातैं कुल कौं गारो आवति।सुनि लाड़लो कहति यह तोसैं, तोकों यातैं रिस करि धावति॥अब समुझी मैं बात सबनि की, झूठैं ही यह बात उड़ावति।सूरदास सूनि सुनि ये बातें, राधा मन अति हरष बढ़ावति॥4॥
कैसे सँग रहौं बिमुखनि कैं, यह कहि-कहि नागरि पछितानी ।
राधा बिनय करत मनहीं मन, सुनहू स्याम अंतर के जामी।मातु-पिता कुल-कानिहिं मानत, तुमहिं न जानत हैं जग स्वामी॥तुम्हरौ नाउ लेत सकुचत हैं, ऐसे ठौर रही हौं आनी।गुरु परिजन को कानि मानयों, बारंबार कही मुख बानी॥कैसे सँग रहौं बिमुखनि कैं, यह कहि-कहि नागरि पछितानी।सूरदास -प्रभु कौं हिरदै धरि, गृह-जन देखि-देखि मुसुकानी ॥5॥मुसुकानी॥5॥</poem>
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