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कचरो / जितेन्द्र सोनी

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|संग्रह=थार-सप्तक-6 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
म्हारै सिरखै
ऊजळै गाभां वाळां सारू
हिल स्टेशन रो म्यानो हुवै-
नवी जिग्यां,
नवा चितराम
घूमणो-फिरणो
खावणो-खरीदणो
मौज-मस्ती
अैसो-आराम।

पण जद पूरा हुवै
म्हारा अै सगळा काम,
सरू हुवै
आं रो ओ काम-
कूटळै रै ढेर मांय
ढूंढै खाली बोतलां
चुगै मोमिया थैला
टूट्योड़ी चप्पलां
अर सगळां नै सोवणी तरियां अंवेर
हो जावै खुस।

जित्तो बेसी कचरो
बित्ती ही बेसी खुसी।
सैलाणियां रो सूगलवाड़ो
बणज्यै आं रो रिजक।

ओ विचारां रो फरक हो सकै
पण
आपां सगळा चावां हां-
कम सूं कम कचरो
अर अै चावै बेसी सूं बेसी।

म्हारो कचरो मिटावणो
स्हैर नैं सोवणो बणावण री आफळ है
पण कचरै रो मिटणो
खिलवाड़ है आं रै पेट सागै।

नीं मुकै कचरो
नीं मुकै आं री जीवण-आस।

कुण सोच सकै-
कचरो इतणो हो सकै
जीवण माथै भारी।
</poem>
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