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|संग्रह=अमर उडीक / मधु आचार्य 'आशावादी'
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<poem>
मोहन रै जीवण रो आसरो
बो रूंख
जिको हो
रेत रै टीबै माथै ऊभो
जिण दिन घर मांय
हुवतो आटै रो घाटो
उण दिन
घर छोड आय जावतो
इण रूंख री छियां
आपै ई उठता उण रा पग
बैठ जावतो
उण रूंख रै साम्हीं
भूख हुय जावती छू-मंतर
रूंख नै देख ‘र सोचतो
बिना खायां-पिया जद
ओ ऊभो है बरसां सूं
म्हैं ई भूखो रैय सकूं
भूख सूं लड़ सकूं।
उण री भुख भगावतो हो रूंख
जीणो सिखावतो हो रूंख।

</poem>
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