भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पछीट पछीट कर धोते थे कपड़े
उसी की रेत से बनते थे घर
उसी के ऑगन मंे आँगन में उतरते थे
गणगौर के रथ
सजीली रणुबाई खिलखिलाती थी वहांवहाँ
रेत पर बिखरती थी धानी चावल की
खुद कभी जाती नहीं थी गाँव में
मगर गाँव के लोग
अपनी अर्थियां अर्थियाँ तक ले जाते थे वहांवहाँ
वहां वहाँ से
उसे मिलती थी जिंदगी
मिलती थी प्रेम कथाएं
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader, प्रबंधक
35,131
edits