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|संग्रह=चीकणा दिन / मदन गोपाल लढ़ा
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<poem>
कांई दिन हा बै
जद म्हारी आवाज रै सागै
थूं पार कर जावती
अंधारी गळी
साव अेकली।

कांई ठाह कींकर
ओ अंधारो उतरग्यो
म्हारै अंतस में।

इण ओपरी ठौड़
अेकलो ऊभो
तरसूं-
फगत अेक हेलै नैं
पण थूं कठै?
</poem>
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