भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जामे ज़हर भी पी गया अश्कों में ढालकर।ढालकर
बैठा था मसीहा मेरा खंज़र निकालकर।
खेती में जो पैदा किया वो बेचना पड़ा,
बच्चों को अब खिला रहा कंकड़ उबालकर।
जल्लाद मुझको कह रहा हँस करके दिखाओ,
मेरे गले में मूँज का फंदा वो डालकर।
आँखों की सफेदी न सियाही ही आयी काम,
देखेंगे गुल खिलेगा क्या आँखों को लाल कर।
मरने के खौफ से ही तू तिल-तिल मरेगा रोज़,
कब तक डरेगा जुल्म से खुद से सवाल कर।
अपने ही अहंकार में जल जायेगा इक दिन,
थूकेगा न इतिहास भी इसका खयाल कर।
इन्सान के कपड़े पहन के आ गया शैतान,
बेशक मिलाना हाथ उससे पर सँभालकर।
</poem>