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सुधियां / अर्चना कुमारी

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|संग्रह=पत्थरों के देश में देवता नहीं होते / अर्चना कुमारी
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<poem>
जाने कितने पट खुल जाते
बीते मौसम द्वार लगाते
सुधियां जब बाराती हो
मन को कितना नाच नचाते।

भादो की उफनाई नदिया
लाल टहक दुल्हन की बिंदिया
प्रीत भरे सावन के झूले
नयनों से फिर नीर बहाते।

प्रियतम सा फागुन बौराता
पात-पात संदेशा लाता
अरुण प्रात के मोहक पंछी
कोई मीठा गीत सुनाते।

सांझ का सुगना लौट रहा है
रात के नीड़ का लिए आसरा
स्वप्नों के उपवन में कान्हा
राधा-राधा की वंशी बजाते।

आवारा मौसम की अठखेली
पूछ रहा है कोई पहेली
कोई बावरी ज्योति बनती
दिया-बाती साथ निभाते।
</poem>
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