भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मानव रहित पृथ्वी / निधि सक्सेना

2,457 bytes added, 09:34, 12 अक्टूबर 2017
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निधि सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=निधि सक्सेना
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
क्या हो गर पृथ्वी यकायक
मानव रहित हो जाये

बमों के धमाके बन्द
आतंक का कहर ख़त्म
धर्मान्ध अतिवाद खत्म
बलात्कार के किस्से खत्म
कन्या भ्रूण का कचरे में मिलना खत्म
एसिड के हमले खत्म
गरीबी भुखमरी का अंत
निकृष्ट राजनेता ख़त्म
पर्यावरण का विनाश ख़त्म
हम और आप खत्म

कुत्रिम रोशनी की गैरहाजरी में
घरा कुछ देर असमंजस में रहेगी
इधर उधर देखेगी
अजीब सा दर्द उभरेगा उसके सीने में
फिर मनुष्य को न पा
राहत की सांस लेगी
उठेगी सूर्य की रोशनी में नहाएगी
अपनी अनावृत देह के जख्म सहलायेगी
अपनी बिखरी रूह समेटेगी

घीरे धीरे अपने आधातों पर हरे रंग की मरहम रखेगी
शुध्द हवा में सांस लेगी
शुद्ध जल का आचमन करेगी

कुछ ही वर्षों में पुनः हरी चुनरिया ओढ़ लेगी
उसकी भोर पक्षियों के कलरव से गूँजेगी
धरा पर रंग बिरंगे पशु दौड़ेंगे
सागर जीवन से भर जाएगा

शोख़ चंचल धरा
मनुष्य के बगैर
फिर मुस्कुराएगी
लजायेगी..
खुद को सँवार लेगी
पुरसुकूँ बरसों बरस आबाद रहेगी

शायद धरती के जीवनदान के लिए
मनुष्य का लुप्त होना मूलभूत हो.
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
2,956
edits