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<poem>
इन अंतहीन, अँधियारी गलियों के पार
सुनते हैं, उजालों का उपवन है.
अंतहीन गलियों के पार सुना है, जीवन है.
यही अफवाह, हमें भटका रही है.
न रुकने देती है, न सुस्ताने,
अपनी फूली हुई साँसों
और इंतज़ार से पथराई आँखों
के सहारे,
इन अंतहीन गलियों की
अंतहीन भूल भुलैय्या में
कब तक भटकें.

अफवाह तो बस
अफवाह होती है.
अफवाह सच भी हो सकती है
और झूठी भी.

पर जाने क्यों-
जाने क्यों-
यह थका हारा तन
यह हतभागा मन
पल भर को भी
मानने को राज़ी नहीं होता,
कि यह अफवाह झूठी भी तो हो सकती है.

बस विवश किये जाता है,
भागने को.
न तो सुस्ताने देता है,
न ही मौका देता है
अँधियारों से समझौता करने को.

विवशता हमारी है
अफवाहों के सहारे जीना.

(प्रकाशित, विश्वामित्र दीपवाली विशेषांक, १९८०)
</poem>
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