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|रचनाकार=दिनेश श्रीवास्तव
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<poem>
आ जा बेटी
तेरा गला घोंट दूं.

अब तू बड़ी हो रही है,
और फ्राक छोड़ पहनना
चाहती है साड़ियाँ,
अब तेरा मन
एक चोटी बांधने को
करता है.

बहुत बसंत किलक चुके
मेरे आंगन में,
बहुत देख ली तेरी
हरसिंगार सी झरती हंसी,
बहुत सुन ली तेरी
रजत घंटियों की मधुर खिलखिल,
बस, बहुत जी लिया तूने !

आ जा बेटी
तेरा गला घोंट दूं.

तू जानती नही,
जाने कितनी संगीने
तेरे वस्त्र फाड़ने को
लपलपा रही हैं,
और जाने कितनी लोहे की जंजीरें
तुझे बांध कर
लताड़ने के लिये
अपनी हथेलियाँ खुजला रही हैं.

आ जा बेटी,
इससे पहले कि
इनकी जलती निगाहें,
तेरी पावनता को कलुषित करें,
आ जा बेटी,
तेरा गला घोंट दूं.


(यह कविता १९७०-८० में घटित एक कांड के उपरांत लिखी गयी थी। इस कुकृत्य के समय कुछ पुलिस अधिकारियों ने छेडखानी का विरोध करने पर महिला के पति को गोली मार दिया था और महिला को निर्वस्त्र करके पूरे बाज़ार में घुमाया था। तत्कालीन प्रधान मंत्री ने पुलिस के बचाव में बोलते हुए उस महिला के चरित्र पर प्रश्न उठाये थे | इसे कुछ कवि सम्मेलनों में पढ़ा था, पर जब भी प्रकाशित करने के लिए भेजना चाहा, बेटी की छवि सामने आ गयी, सो यह बहुत दिनों तक अप्रकाशित रही | बाद में २४. ८. १९८० के विश्वामित्र (कलकत्ता) में प्रकाशित हुई)

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