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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनेश श्रीवास्तव
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
पल पल खाकर धोखा
झूठों के हाथों.
कदम कदम फिसल कर
कपट भरी राहों में.
दे दे कर रोज रोज वकासुर को हिस्सा.
नतमस्तक रह करके
मूढ़ों के आगे
कब तक बिखेरूँ
मन मोहक मुस्कान.
आज मुझे रोक मत
उगल लेने दो विष
अब नीलकंठ रह पाना
मेरे बस का नहीं.
थोड़ी देर पहले ही
बता गए काक भुसुंडि जी
कि
"पा करके वरद हस्त
एक नीलकंठ का-
उजाड़ते रहे हैं दुनियाँ
बार बार राक्षस |"
(प्रकाशित- विश्वामित्र, २.२.१९८०)
</poem>
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पल पल खाकर धोखा
झूठों के हाथों.
कदम कदम फिसल कर
कपट भरी राहों में.
दे दे कर रोज रोज वकासुर को हिस्सा.
नतमस्तक रह करके
मूढ़ों के आगे
कब तक बिखेरूँ
मन मोहक मुस्कान.
आज मुझे रोक मत
उगल लेने दो विष
अब नीलकंठ रह पाना
मेरे बस का नहीं.
थोड़ी देर पहले ही
बता गए काक भुसुंडि जी
कि
"पा करके वरद हस्त
एक नीलकंठ का-
उजाड़ते रहे हैं दुनियाँ
बार बार राक्षस |"
(प्रकाशित- विश्वामित्र, २.२.१९८०)
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