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|रचनाकार=पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
तुम इतने बोधगम्य हो
जैसे समाधिस्थ बुद्ध के पास पड़ा
एक कामनाहीन पत्ता.
मैं तुम्हारे प्रेम में
अपनी सब कोमल कवितायें
वो विनम्र पत्ते बना दूँगी
जो अपने पतन को पूर्व से जानते हैं.
मैं ख़ुद को क्षमा कर दूँगी.
</poem>
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तुम इतने बोधगम्य हो
जैसे समाधिस्थ बुद्ध के पास पड़ा
एक कामनाहीन पत्ता.
मैं तुम्हारे प्रेम में
अपनी सब कोमल कवितायें
वो विनम्र पत्ते बना दूँगी
जो अपने पतन को पूर्व से जानते हैं.
मैं ख़ुद को क्षमा कर दूँगी.
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