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Kavita Kosh से
सूप से चाल रहे थे, सूत्र, साध, संविधान, संसद, आवाज़
संवेदना, सहानुभूति, भर्त्स्नाभर्त्सना, भावुकता
कुटिल कातती थी शोषण, त्रासदी, भूख और नग्नता
चटख़ारे लेता था धिक्कार लिखता मानवाधिकार
सस्ता, और सस्ता बाज़ार हो चला था- शब्द-संसार
कवि, दार्शनिक, विचारक, सुधारक
और संकीर्णता से, थक कर उपजी, कृत्या थी
नागरिक-शास्त्र के भ्रामिक संशोधन में
साहित्य की स-हत्या थी !.
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