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{{KKRachna
|रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
वह कहता है
ले चुन ले रंग
और अपना रंग लेकर मेरी शक्ल पर
पोत देता है
वह कहता है
ले, अब चुन ले ख़्वाब
और अपने मंसूबे मेरी आँखों पर
टाँक देता है
वह कहता है
समाज तेरा है
पर हर कदम पर
लक्ष्मण रेखाएं खींच देता है
चट्टानों पर मेरे लिए
वह कहता है
धर्म तुझे मुक्त करेगा
और आँख नाक कान मुंह पर
पट्टी बाँध देता है
(दलील देता है
सुनो...मंदिर के बंद कपाटों पर भी तो
ताला लगा है)
वह कहता है
अपनी ज़मीन से प्रेम कर
और तेरी अपनी ज़मीन
यहाँ इस रेखा से लेकर
उस सरहद तक है
इस रेखा के उस पार
वह जो खड़ा है
उस पर गोलियां दाग
वह तेरी स्वायत्तता का दुश्मन है
कहकर मेरे कंधे पर
भारी बन्दूक रख देता है
इसी तरह वह उछालता चलता है
शब्दों के पासे
कहता है -
तू इंसान है
एक मकसद लेकर जी
और मकसद वह खुद बन बैठता है
मैं ताउम्र
उसका मकसद पूरा करने की कोशिश में
अपनी स्वायत्तता को गिरवी रखता जाता हूँ
</poem>
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वह कहता है
ले चुन ले रंग
और अपना रंग लेकर मेरी शक्ल पर
पोत देता है
वह कहता है
ले, अब चुन ले ख़्वाब
और अपने मंसूबे मेरी आँखों पर
टाँक देता है
वह कहता है
समाज तेरा है
पर हर कदम पर
लक्ष्मण रेखाएं खींच देता है
चट्टानों पर मेरे लिए
वह कहता है
धर्म तुझे मुक्त करेगा
और आँख नाक कान मुंह पर
पट्टी बाँध देता है
(दलील देता है
सुनो...मंदिर के बंद कपाटों पर भी तो
ताला लगा है)
वह कहता है
अपनी ज़मीन से प्रेम कर
और तेरी अपनी ज़मीन
यहाँ इस रेखा से लेकर
उस सरहद तक है
इस रेखा के उस पार
वह जो खड़ा है
उस पर गोलियां दाग
वह तेरी स्वायत्तता का दुश्मन है
कहकर मेरे कंधे पर
भारी बन्दूक रख देता है
इसी तरह वह उछालता चलता है
शब्दों के पासे
कहता है -
तू इंसान है
एक मकसद लेकर जी
और मकसद वह खुद बन बैठता है
मैं ताउम्र
उसका मकसद पूरा करने की कोशिश में
अपनी स्वायत्तता को गिरवी रखता जाता हूँ
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