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<poem>
मैं औरत हूँ
मेरी देह दो अहसासों का घमासान है
एक- प्रसव की पीड़ा
और दूसरा भींच कर बंद रखे जबडे से उठता दर्द
एक मेरे भीतर की स्त्री को जनमता है
और दूसरा -
उसकी देह को उसी की नदी में
जबरन डुबो देता है
मैं मौन रह जाती हूँ
बस, सीने से उठता गुबार
नसों में, सर में आग भरता है
जबड़ों में उठता दर्द
बारूद की तरह फट पडने को है
दांत मत निपोरना-
तुम्हारी बेशर्म नज़रों का शोर
बर्दाश्त के बाहर है
यदि दिमाग में भरा बारूद फट पड़ा
तो तुम्हारे अस्तित्व का क्या होगा
क्या करोगे उस दिन
जब मेरे चूल्हे में सिकी नर्म रोटियाँ
और प्रेम से सिक्त देह जलते अलाव बन जायेंगे
और मैं तुम्हारे लिए बेटे जनने से
इनकार कर दूंगी
क्या करोगे उस दिन
जब तुम मेरे लिए वो आकाश नहीं रहोगे
जिसे मैं, धरती,
ओढे रहती हूँ हरदम ?
जब मैं तुम्हारी
ओछी नज़रों
और पाशविक उन्माद से लथपथ अहम् को उतार
फेंक दूँगी
तुम अंतरिक्ष के कौन से
विवर में धंसोगे तब ?
</poem>
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