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मेरी धूप / जया पाठक श्रीनिवासन

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वह धूप
भोर में
उतरती है
धीमे से
उसके पैरों में
चाँदी की पाजेब
छनकती जाती है
हर ओर
उसकी चाल के साथ
मेरी कायनात चलती है
छम-छम
वह धूप हँसती है
जब पुचकारूं उसे
और जब गले लगा लूं
तो चीख पड़ती है
ख़ुशी के मारे
कभी वह धूप
जवान होगी
तो मेरी पीठ जलाएगी
उसे किसी और के आँगन में रख आना होगा
फिर वह धूप
दिनभर आँगन बुहारते
नए सूरज बोते
उस "किसी और" के आँगन में ढल जाएगी
मैं देखूंगा
यूँ ढलते उसे
अपनी मुंडेर पर
आस की कोहनी टिकाये
नम आँखों से
</poem>
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