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एक बार फिर / जया पाठक श्रीनिवासन

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आखिर ऐसा
कौन सा बिंदु था
जिसमें
तुम और मैं और बाकी सब
चर-अचर समाहित थे
एक साथ
और यह
कौन सा विस्तार है
जिसमें
अपना आप भी
बिखरा हुआ है

प्रकाश पुंज वह
जहाँ से
शुरू हुआ था सब
क्या एक बार फिर नहीं
चलोगे उसी शून्य पर
शुरू करना है फिर
सफ़र पुराना
एक बार फिर फूट कर
निकल चलना उस राह
जिस पर
सभ्यताओं की पदरेख,
भग्न महल-मंदिर टूटे से,
टूटे घर-बर्तन के टुकड़े देख
सोच लेता हूँ
यह हाँ यही मैं हूँ
सुनो, इस बार
मिट्टी के टुकड़े नहीं
मन टटोलना चाहता हूँ
दुःख, सुख, पीड़ा, हर्ष आदि सब
अपने अतीत का
मेरी आनेवाली पीढ़ियाँ
मुझे भी कुरेदकर निकालेंगी ही
कभी न कभी
उन्हें यकीन कैसे होगा
कि मैं भी उसी बिंदु से निकला हूँ
जिस में
सतेज
तुम और मैं और बाकी सब
चर-अचर समाहित थे
एक साथ कभी
</poem>
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